Monday, April 27, 2009

विनयपत्रिका से

हरी आपने मेरे ऊपर बहुत से अनुग्रह किए हैं ;आपने मुझे मनुष्य बनाया और जीवन में बहुत बड़े बड़े उपकार किए ;परन्तु अब आपसे कुछ और मांगता हूँ क्योंकि आप अति उदार हैं अतः मेरी एक और मांग स्वीकार कर लें मेरी मन रूपी मछली विषय रूपी जल से एक क्षण के लिए भी अलग होना नही चाहती , इसी से दारुण दुःख भोग रहा हूँ आप अपनी कृपा को डोर बनायें अपने चरणों को वंशी का कांटा और उसमें प्रेम का चारा लगाकर मुझे फंसा लीजिये इससे आपका मनोरंजन भी होगा और मेरा उद्धार भी हे हरी आपने ही यह बंधन बांधा है , आप ही मुक्त करिए
विनय -पत्रिका १०२ तुलसीदासजी
तू दयाल है तो मै दिन ; तू दानी तो मै भिखारी ; तू पाप समूहों का नाशक तो मै भी प्रसिद्द पापी हूँ ; तू अनाथों का नाथ तो मेरे जैसा अनाथ कहाँ मिले गा ; तुम आर्त लोगो का दुःख हरने में बेजोड़ हो तो मेरे जैसा आर्त भी नही कोई इस दुनिया में ; तू ब्रह्म तो मै जीव और तुम स्वामी तो मै सेवक ; पिता ,माता ,गुरु , सखा सभी रूपों में तू मेरा हित चिन्तक है ; मेरे तुम्हारे रिश्ते तो अनेकानेक बनते हैं ; तुम्हे जो भी पसंद हो चुन लो और उसी को मानकर जिस किसी भी तरह अपने चरणों में शरण दो वही ७९
निम्न कारणों से मै बहुत पहले ही इसीलिए आपकी शरण में गया हूँ , ज्ञान , वैराग्य , भक्ति , साधन , तो मुझे सपने में भी नहीं मिले , दूसरी तरफ़ लोभ -मोह - मद -काम क्रोध सारे दुश्मन रात दिन मेरे पीछे पड़े हैं ; इन सब से मिलकर मेरा मन कुपथ पर चला गया है और अब तो मेरे वश में नहीं इनसे फिरना , तुम्हारे से भले फ़िर जायं संत तो कहते हैं विषय दोषों के घर और शोकप्रद हैं , यह जानकर भी इन्ही से अनुराग है मुझे , यह स्यात् आपकी वजह से है आप तो विष को अमृत और आग को हिम बना सकते हैं और बिना नावके उस पार करने वाले हैं मालिक तो बहुतेरे हैं परन्तु तुम जैसा कृपालु और हित करने वाला कहाँ मिलेगा , ऐसा समझ कर और भलीभांति jankar मै तो केवल एक तुम्हारे भरोसे ही rahataa hun यह जीवन की विपत्ति जाल तो कहे ते मोहि बिसारो जानत
kahe te हरि mohi bisaro
jaanat निज महिमा मेरे अघ तदपि नाथ सम्हारोपतित पुनीत दीन हित असरन सरन कहत श्रुति चारो
हौं नहीं अधम सभीत दीन किन्धौं वेदन मृषा पुकारोखग गनिका गज ब्याधि पांति जहँ तहं हौहूँ बैठारो
अब केहिं लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारोजौ कलिकाल प्रबल अति होतो तुव निदेस ते न्यारो
तौ हरि रोष भरोस दोस गुन तेहि भजतो तजि गारोमसक बिरंचि बिरंचि मसक सम करै प्रभाऊतिहारो
यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु नाथ तहाँ कछु चारोनाहिन नरक परत मोकह डर हौं यद्यपि अति हारो
यह डि त्रास दास तुलसी के नामहु पाप जारोवही९४









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