हरी आपने मेरे ऊपर बहुत से अनुग्रह किए हैं ;आपने मुझे मनुष्य बनाया और जीवन में बहुत बड़े बड़े उपकार किए ;परन्तु अब आपसे कुछ और मांगता हूँ क्योंकि आप अति उदार हैं अतः मेरी एक और मांग स्वीकार कर लें । मेरी मन रूपी मछली विषय रूपी जल से एक क्षण के लिए भी अलग होना नही चाहती , इसी से दारुण दुःख भोग रहा हूँ । आप अपनी कृपा को डोर बनायें अपने चरणों को वंशी का कांटा और उसमें प्रेम का चारा लगाकर मुझे फंसा लीजिये । इससे आपका मनोरंजन भी होगा और मेरा उद्धार भी । हे हरी आपने ही यह बंधन बांधा है , आप ही मुक्त करिए ।
विनय -पत्रिका । १०२ । तुलसीदासजी
तू दयाल है तो मै दिन ; तू दानी तो मै भिखारी ; तू पाप समूहों का नाशक तो मै भी प्रसिद्द पापी हूँ ; तू अनाथों का नाथ तो मेरे जैसा अनाथ कहाँ मिले गा ; तुम आर्त लोगो का दुःख हरने में बेजोड़ हो तो मेरे जैसा आर्त भी नही कोई इस दुनिया में ; तू ब्रह्म तो मै जीव और तुम स्वामी तो मै सेवक ; पिता ,माता ,गुरु , सखा सभी रूपों में तू मेरा हित चिन्तक है ; मेरे तुम्हारे रिश्ते तो अनेकानेक बनते हैं ; तुम्हे जो भी पसंद हो चुन लो और उसी को मानकर जिस किसी भी तरह अपने चरणों में शरण दो । वही । ७९ ।
निम्न कारणों से मै बहुत पहले ही इसीलिए आपकी शरण में आ गया हूँ , ज्ञान , वैराग्य , भक्ति , साधन , तो मुझे सपने में भी नहीं मिले , दूसरी तरफ़ लोभ -मोह - मद -काम क्रोध ऐ सारे दुश्मन रात दिन मेरे पीछे पड़े हैं ; इन सब से मिलकर मेरा मन कुपथ पर चला गया है और अब तो मेरे वश में नहीं इनसे फिरना , तुम्हारे से भले फ़िर जायं । संत तो कहते हैं ए विषय दोषों के घर और शोकप्रद हैं , यह जानकर भी इन्ही से अनुराग है मुझे , यह स्यात् आपकी वजह से है । आप तो विष को अमृत और आग को हिम बना सकते हैं और बिना नावके उस पार करने वाले हैं । मालिक तो बहुतेरे हैं परन्तु तुम जैसा कृपालु और हित करने वाला कहाँ मिलेगा , ऐसा समझ कर और भलीभांति jankar मै तो केवल एक तुम्हारे भरोसे ही rahataa hun । यह जीवन की विपत्ति जाल तो कहे ते मोहि । बिसारो । जानत ।
kahe te हरि mohi bisaro
jaanat निज महिमा मेरे अघ तदपि न नाथ सम्हारो । पतित पुनीत दीन हित असरन सरन कहत श्रुति चारो ॥
हौं नहीं अधम सभीत दीन किन्धौं वेदन मृषा पुकारो । खग गनिका गज ब्याधि पांति जहँ तहं हौहूँ बैठारो ॥
अब केहिं लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारो । जौ कलिकाल प्रबल अति होतो तुव निदेस ते न्यारो ॥
तौ हरि रोष भरोस दोस गुन तेहि भजतो तजि गारो । मसक बिरंचि बिरंचि मसक सम करै प्रभाऊतिहारो ॥
यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु नाथ तहाँ कछु चारो । नाहिन नरक परत मोकह डर हौं यद्यपि अति हारो ॥
यह बडि त्रास दास तुलसी के नामहु पाप न जारो । वही । ९४ ।
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