Saturday, August 29, 2009

वेद आत्मा का विज्ञानं

वेद का अर्थ होता है ज्ञान , नॉलिज । वेदों में जों सर्वोत्तम ज्ञान है वह उपनिषदों में और परिष्कृत और शुद्ध होकर वेदांत कहलाया । शंकराचार्य जी ने इसे स्थापित किया । वेदांत आत्मा का विज्ञानं है , सनातन और अपरिवर्तनीय ; इटरनल एण्ड अनचेंजिंग । यह ज्ञान उसी तरह का है आत्मा के सम्बन्ध में जैसे न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत । न्यूटन के पहले भी यह था और सौर्य मंडल के रहते तक रहेगा । इसी तरह वेदांत उसके पहले भी था , जब हमारे मनीषियों ने इसे खोजा और स्थापित किया । यह आत्मा का सिद्धांत सदा था , सदा रहेगा , विज्ञानं यहीं तक जायेगा ।
हिंदू धर्म इसी वेद / विज्ञानं से निकला है , इसी से हिंदू धर्म का कोई संस्थापक नही और इसे भी सनातन कहा है । हिंदू धर्म वेदांत अर्थात आत्म -विज्ञानं पर आधारित है । हिंदू धर्म अति पुरातन तीन धर्मों - हिंदू , पारसी और यहूदी में से एक है । पारसी इस्लाम के प्रभाव से और यहूदी इसाई धर्म के दबाव से कम और कमतर होते चले गए । हिंदू धर्म पर तो इसाई और इस्लाम के और बड़े बड़े हमले हुए परन्तु - '' कुछ बात है की हस्ती मिटती नही हमारी '' और वह बात यही है कि हिंदू धर्म मूल में वैज्ञानिक है । हमारे धर्म के मूल नियम प्रकृति के नियमों के अनुकूल हैं । ( मेरे कहने का अर्थ यह नही कि अन्य धर्मों के नियम सही नही है , जों भी नियम विज्ञानं की कसौटी पर खरे हैं वो हमारे धर्म जैसे ही उपयुक्त हैं )
हमारा मूल धर्म वैश्विक एकात्मकता यानि कि युनिवर्शल यूनिटी और युनिवेर्सल वननेस में विश्वाश करता है और अहिंसा हमारा परम धर्म है ( जैन धर्म का तो यही सूत्र है '' अहिंसा परमो धर्मः '' ) अहिंसक कभी नष्ट नही होगा यह विज्ञानं का / प्रकृति का नियम है । हमारा परम लक्ष्य इस अपनी आत्मा को जों परमात्मा का अंश है उससे मिलाना है । '' ज्ञानअखंड एक सीताबर '' ; '' सोहमस्मि इति वृति अखंडा '' ; '' तत त्वं असि '' ; नेति ,नेति और '' सर्व खलु इदं ब्रह्म '' ए सभी हमारे आत्मा और जीव सम्बन्धी वैज्ञानिक सिद्धांत हैं ।
हमारे धर्म में साधना , पूजा में बहुत विविधता है परन्तु सभी विधियों में मूल दर्शन अनुस्यूत है ।
इन बिभिन्न स्तरों को देखिये -
१ -- मूर्ति पूजा प्रथम स्तर कि साधना है जिसमे परम पुरूष / आत्मा के बिभिन्न प्रतीकों की आराधना होती है ,जिससे साधक जों आत्म -विज्ञानं नही जानता , एक कदम बढ़ता है (सर्व खलु इदं ब्रह्म ) । यह साधना का मानो-विज्ञानं है । यह मनो -विज्ञानं श्रद्धा - विश्वास पर आधारित है ।
२-- यह साधना का दूसरा स्तर है जिसमे पुरुषोत्तम को साकार ईश्वर मानकर , उसे आदर्श मानकर उसकी आराधना / भक्ति / प्रार्थना / नाम जप आदि आदि द्वारा मन को निर्मल और उदार बनाया जाता है । यह भी मनो -वैज्ञानिक है । इस सिद्धांत में यह बड़ी बात छिपी है कि मनुष्य अवतारी / ईश्वर भी हो सकता है और जब निराकार ईश्वर का साक्षात्कार कठिन हो तो हम साकार ईश्वर से मिल सकते हैं - राम और कृष्ण आदि आदि । हम भी अवतार बन सकते हैं , यानि कि आदमी ही राक्षस और देव दोनों को प्राप्त हो सकता है अपने कर्मों से । राम चरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने परम तत्व , ब्रह्म का राम के अवतार के रूप में अतिउत्तम समन्वय किया है जोंदुनिया के दर्शन साहित्य में अतुलनीय है , अनुपम है , ज्ञान कि पराकाष्ठा है । भक्ति का महा -योग .
३-- योग द्वारा ध्यान और समाधि को प्राप्त करना । यह ध्यान समाधि , भक्ति और अष्टांग योग से मिल सकता है । ( कुछ लोग मूर्ति -पूजा से भी ध्यान समाधि प्राप्त कर लेते है - जैसे विवेकानंद के गुरु परमहंस राम कृष्ण । यह एक उदहारण है )
४ -- परम ज्ञान / निर्वीज -समाधि / कैवल्य परमपद / सो अहम् अस्मि / आत्मा का परमात्मा से मिलन । '' सोई जाने जेहि देहु जनाई । जानत तुमहि तुमहि होई जाई '' - राम चरित मानस । यह अवस्था वैज्ञानिक है । विज्ञानं की सभी शाखाओं का गंतव्य भी यही परम तत्व है ; अल्टीमेट एलिमेंट , अल्टीमेट रियलिटी , ट्रूथ ।
*** ध्यान रखना कि मनोविज्ञान मन का विज्ञानं और वेद -वेदांत आत्मा -परमात्मा का विज्ञानं है । मन और आत्मा हमारे दो स्तर हैं । मन हमारे शरीर का उत्तम स्तर है और आत्मा परमात्मा का चेतन , सहज , अमल , सुख राशिः है ।

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