जैन धर्म / तुलसीदास ने सम्यक ब्यक्तित्व की बात की है कि लाखों लोगों में कोई सम्यक ज्ञानी होता है . लोग बहुत बुद्धिमान ,पदासीन .ऐश्वर्य युक्त होकर भी सम्यक ज्ञानी नहीं होते .सम्यक ज्ञान अपने जीवन के साथ दूसरे प्राणी के साथ सहजीवी होकर सतत एकरस जीना होता है ;पूरी सावधानी और सम्पूर्णता के साथ जिसके आधार हैं १-सत्य २-तर्क ३- निति और विज्ञानं ; सभी समन्वित और एक साथ .और कहीं चूक नहीं .
दो उदहारण - १ सामान्यतया बड़े बड़े महात्मा और ज्ञानी फूलों की माला .फूल चढाते और पहनते है उन्हें पता नहीं फूल ईश्वर /प्रकृति की सुन्दरतम -सजीव स्रष्टि है और मनुष्य या मूर्ति से उत्तम है और कि फूल तोड़ना हिंसा है .(गाँधी फूल नहीं तोड़ते थे -सूत माला लेते- देते थे .)
२-जार्ज बी . शा बहुत बुद्धिमान .पटु-वक्ता . लेखक और सर्व संपन्न अंग्रेज महापुरुष थे परन्तु बहुत चाहते हुए भी धूम्र-पान न छोड़ सके .( गाँधी जी पत्नी के स्वस्थ्य रहने के सहयोग में भोजन में नमक नहीं लेते थे )
३-गुरु से शिष्य बड़ा नहीं होता ;शिष्य से गुरु जाना जाता है .गुरु सीमित साधन है ;साध्य तुम्ही हो ;बुद्ध कोई दूसरा बुद्ध नहीं बना सके ; बोले "आप्त दीपो भव ,खुद ही जलो .
पहले तो गुरु की जरुरत ज्यादा है नहीं पर यदि हो तो बहुत ही समझदारी से गुरु का चुनाव करे .आधुनिक तथाकथित गुरु (इस शब्द पर ध्यान दें )प्रायः धर्म और शिष्य दोनों का शोषण ही करते है .९८ % गुरु को धर्म ,ईश्वर , ज्ञान और विज्ञानं की कोई भी जानकारी नहीं होती ;ए लोग धन से पागल हुए लोग जिन्हें सुख शांति नहीं है जिनको रोग और विपत्ति घेर लिए हैं के धन और मन का ढोंग से हरण (शोषण)करते हैं ऐसे लोग जों पाप-कर्मों में लगे रहे और जिनका अपराध -बोध उनके गले/कंठ तक भर चुका है वही घबराहट में इन संतो के घर जाते हैं औरऐसे संत इनका धन तो हर लेते हैं पर शोक नहीं हर पाते . (तुलसीदास जी ) क्योंकि .सुख और दुःख अपने कर्मों से ही मिलते ,होते और जाते हैं अतः अच्छे कर्ममें प्रवृत होना एकमात्र मार्ग है
आपका गुरु आपके भीतर ही है .अच्छा -बुरा सब आपको मालूम है अच्छे का चुनाव करो और उसी के अनुसार काम .इस के लिए प्रार्थना काफी है -कहीं भी ; किसी समय एकदम मौन से जरुरत हो तो किसी से सलाह ले लेना .
बुद्ध से बड़ा कोई तपस्वी ,त्यागी और ज्ञानी नहीं हुआ जों कहते हैं "आप्तदीपो भव '' खुद जलकर प्रकश बनो .
Lord Krishna, is the Supreme Being reincarnate, who spoke in about 3,100 years BC. The Gita gives a non-fearing knowledge of the higher Self, and answers two universal questions: Who am I, and how I can live a happy and peaceful life in this world of dualities? It's a book of wisdom,that inspired Thoreau, Emerson, Einstein, Gandhi and many others. A repeated study purifies our psyche and guides us to face the challenges of modern living leading to inner peace.
" When the lamp of knowledge shines and purifies all the organs of our body, then it should be known that Sattva is predominant." -- Gita (14.11)
"Loud speech, profusion of words, and possessing skillfulness in expounding scriptures are merely for the enjoyment of the learned. They do not lead to liberation."
"I am the nature of Pure Consciousness. I am always the same to beings, one alone; ;the highest Brahman,like the sky,all-pervading, imperishable, auspicious, uninterrupted, undivided. I do not belong to anything since I am free from attachment. Nondual-That am I, and I am forever released."- Aadi Shankaracharya
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