यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ "
यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसे स्वीकार कर लेता है, उसको ही प्राप्त हो सकता है। यह परमात्मा उसे अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है।
परमात्मा मनुष्य के भीतर ही है। बाह्य साधन उपयोगी तो होते हैं, किन्तु वे मनुष्य को साध्य तक नहीं पहुँचा सकते। प्रवचन अर्थात् वेदादि का अध्ययन और विवेचनापूर्ण व्याख्यान तथा चर्चा-परिचर्चा करना उपयोगी तो है पर्याप्त नहीं । बुद्धि द्वारा परमात्म-तत्त्व को जानना संभव नहीं होता, क्योंकि परमात्मा मात्र बुद्धि का विषय नहीं अपितु अनुभव का विषय है । बौद्धिक तर्क की एक सीमा होती है तथा परम सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण मात्र कुशाग्र बुद्धि से भी नहीं हो सकता। तर्कशील व्यक्ति तर्क-वितर्क के जाल में फँसकर उलझे रह जाते हैं और किसी निर्णय एवं निश्चय तक नहीं पहुँच पाते। तीव्र बुद्धि होने का अहंकार सत्य की प्राप्ति के मार्ग में बाधक हो जाता है। ।
परमात्मा ही जिसे स्वीकार कर लेता है, उसे परमात्मा की प्राप्ति होती है । परमात्मा- दर्शन एवं अनुभव परमात्मा के प्रसाद से अथवा उसकी कृपा से ही होता है। परमात्मा किसी के लिए सुलभ हो जाता है, जो उसका सत्पात्र हो।परमात्मा को तथा उसकी दिव्यानुभूति प्राप्त करने के लिए उत्कट इच्छा, अहंकारशून्यता, चित्त की निर्मलता तथा वैराग्यभाव मनुष्य को भगवत्कृपा का अधिकारी बना देते हैं। "निरमल मन-जन सो मोहि पावा "- तुलसी दास मानस में .
तस्य वाचक: प्रणव: (योगदर्शन, १.२७)—ॐ परमात्मा का वाचक है।
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥ (गीता, १७.२३)
तस्मादेमित्युदाहत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मवादिनाम्॥ (गीता, १७.२४)
ओमित्येतदक्षर मुद्गीथमुपासीत।
ओमिति हि उद्गयति तस्योपव्याख्यानम्॥ (छान्दोग्य उप०, १.१.१.)
ॐ परब्रह्म का प्रतीक है। ॐ कहकर उद्गान करता है। उद्गाता ॐ इस अक्षर से प्रारंभ करके उद्गान करता है। ॐकार उद्गीथ है। ॐ उद्गीथसंज्ञक प्रकृत अक्षर है। इससे परमात्मा की अपचिति (उपासना) होती है। तेनेयं.…रसेन (छान्दोग्य उप०, १.१.९) इसकी अर्चना परमात्मा की ही अर्चना है।
इसकी तीन मात्राओं की उपासना के पृथक्-पृथक् अनेक फल हैं। ॐ ब्रह्म है, ॐ समस्त जगत् है। ॐ से ब्रह्म को प्राप्त करता है। हरि: ॐ का उच्चारण परमात्मा का स्मरण है। ३ ॐ का उच्चारण करके उपनिषदों का प्रारंभ किया जाता है।
ॐ ऐसा यह अक्षर है अर्थात् अविनाशी परमात्मा है। यह सम्पूर्ण जगत् उसका ही उपव्याख्यान अर्थात् उसकी ही महिमा का गान है। जो भूत, वर्तमान, भविष्यत् है, वह सब ओंकार है तथा त्रिकालातीत इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
यही परमपद ओम् है। यह अक्षरब्रह्म तथा शब्दब्रह्म है। यह एक अक्षऱ ब्रह्म का वाचक अथवा अनुकृति है। यह तीन मूल ध्वनियों अ, उ, म्, का संयोजन है। नाम तथा नामी में अभेद होता है तथा वे एक होते हैं, नाम से नामी का उल्लेख होता है। ओम् ब्रह्म का नाम है, साक्षात् ब्रह्म ही है। ओम् की साधना करने से ब्रह्म की प्राप्ति एवं अनुभूति संभव हो जाती है।
'ॐ तत्सत्' तथा 'ॐ' की महिमा का गान भगवद्गीता में भी किया गया है। ओम् का उच्चारण करके यज्ञ-दान-तप आदि का प्रारंभ किया जाता है। अनेक उपनिषदों में अनेक स्थानों पर ओम् के अद्भुत प्रभाव की चर्चा की है।
"परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कारः। …स यद्येकमात्रमभिध्यायीत स तेनैव…संवेदितस्तूर्णमेव जगत्यामभिसंपद्यते। तमृचो मनुष्यलोकमुपनयन्ते स तत्र तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया समपन्नो महिमानमनुभवति।" (प्रश्नोपनिषद्, ५)
"ओमिति ब्रह्म ओमितीदं सर्वम्…ब्रह्मैवोपाप्रोति।" (तैत्ति० उप०, १.८)
" हरिः ॐ ब्रह्मवादिनो वदन्ति" (श्वेताश्वतर उप०, १.१)
" ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवत् भविष्यत् इति सर्वमोङ्कार एव।
यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव।" (माण्डूक्य उप०, १)
" प्रणवोधनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्ल्क्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥" (मुण्डक उप०, २.२.४)
" ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्॥
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥" (गीता, ८.१३)शब्द और अर्थ सम्पृक्त होते हैं, पृथक् नहीं किए जा सकते हैं। कालिदास कहते हैं—"वागर्थाविव संपृक्तौ" वाक् और अर्थ की भाँति संपृक्त (पार्वती और शिव)।"गिरा अर्थ जल वीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न" वाणी और अर्थ जल और वीचि (लहर) की भाँति अभिन्न (सीता और राम) यद्यपि देखने में भिन्न हैं। ॐ अपने लक्ष्यभूत ब्रह्म से भिन्न नहीं है तथा दोनों एक ही हैं।-(तुलसी दास ,मानस में )
" In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God." (Bible, १.१)
सन्त जॉन — 'प्रारंभ में शब्द था, वह शब्द परमात्मा था, और वह शब्द ही परमात्मा था।' यही लौगोस अथवा शब्द है।
ॐकार मनुष्य का श्रेष्ठ आलम्बन है। भारतीय मूल के समस्त धर्मों में ॐ को मङ्गलदाता एवं अमङ्गलहर्ता माना जाता है। यह मनुष्य की वाणी की स्वाभाविक एवं सहज महिमामय विस्फोट है। यह विश्व की सूक्ष्म एवं दिव्य परमसत्ता का वाचक अथवा प्रतीत है। वाचक और वाच्य अथवा नाम और नामी एक होते हैं। ॐकार भगवत्प्राप्ति का माध्यम अथवा सोपान है। यह मनुष्य का श्रेष्ठ आलम्बन है। वास्तव में अपने भीतर संस्थित परमात्मा ही मनुष्य की अन्तिम तथा सर्वोच्च आलम्बन (आश्रय, सहारा) है। प्रतीक को माध्यम मानने के कारण ॐ मनुष्य का स्थायी और श्रेष्ठ आलम्बन है। संसार के सारे अवलम्बन अस्थिर और अस्थायी होते हैं। केवल परमात्मा का सहारा ही सच्चा सहारा होता है। संसार कर्मभूमि है तथा मनुष्य को पुरुषार्थ करना चाहिए, किन्तु दृढ आलम्बन तो परमात्मा- नाम का ही होता है।
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its really inspiring sir. since i met you i am trying to know who am i but it seems that the goal is still far away.i am waitin for him to accept me and i am restless till that day.
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