Saturday, August 1, 2009

राम चरित मानस से . - ज्ञान सार .

श्रृष्टि में मनुष्य से उत्तम कोई प्राणी/ जीव नही है । दरिद्रता के सामान कोई दुःख नही है । मन -बचन -कर्म से जो दूसरों की भलाई करे वही संत / सज्जन है । संत दूसरों के हित के लिए और दुष्ट दूसरों के दुःख के लिए कष्ट सहते हैं जैसे भोज का बृक्ष लिखने के लिए अपनी खाल उतार देता है परन्तु सन दूसरे को बंधने के लिए अपनी खाल उतरवाकर बहुत कष्ट सह कर रस्सी बन जाता है । दुष्ट बिना किसी अपने स्वार्थ सधे स्वभाव वश दूसरों को दुःख देते हैं । कहा गया कि संत का ह्रदय नवनीत / माखन की तरह तरल होता है परन्तु ठीक से नही कहा ; नवनीत तपाने से पिघलता है परन्तु संत दूसरों का दुःख देख कर ही पिघल जाते हैं । श्रुति / वेद में अहिंसा को परम धर्म कहा है और पर पीड़ा को नीचता ; परनिंदा को पाप कहा है ।
मन की मलीनता से शरीर में रोग होते हैं - विषयों की इक्षा से पीड़ा , ममता से चर्म रोग , इर्ष्या से खुजली , हर्ष -विषद से गले के रोग , दूसरे के सुख को देख कर जो जलन है , वह क्षय रोग है , मन की दुष्टता और कुटिलता से कुष्ट रोग होता है , अहंकार से गांठ का रोग , दंभ , कपट , मद ,मान से नसों के रोग , लालच से उदरब्रिद्धि और मोह से तो नाना प्रकार के रोग पैदा होते हैं । अविवेक और मत्सर से ज्वर ; काम से बात ; क्रोध से पित्त जनित रोग ; लोभ से कफ और इन तीनों के मिलाने से सन्निपात होता है । एक रोग मरने को बहुत है परन्तु लोग तो अनेकानेक रोगों से ग्रस्त हैं । नियम ,धर्म , आचार, तप , यज्ञ , जप , ज्ञान , दान और औषधियों से ऐ रोग नही जा सकते । यह जान लेने से कि किस मानसिक अवस्था से क्या रोग बनते हैं , उसी तरह से आचरण कर इन्हे कम किया जा सकता है । प्रभु प्रार्थना और ईश- कृपा से सभी रोग नष्ट हो जाते हैं क्योंकि राम भक्ति से मन निर्मल हो जाता है । ( पातंजल योग -सूत्र भी यही कहता है , जैसे '' हिंसा तन्निरोधे वैर त्यागः '' अर्थात अपने मन में किसी के प्रति हिंसा का भाव न रखने से दूसरे लोग आपसे वैर नही करेंगे .
राम चरित मानस उत्तर कांड - १२० से १२२ दोहों के मध्य ।
कृपया राम चरित मानस पढ़ें .

1 comment:

Vinod Rai said...

it is another attempt to say meaningful things in plain and simple way.those who can,t read ramayan,must read your articles on it.