श्री कृष्ण को उन भारतीय महापुरुषों में शीर्ष पर रखा गया है जो उत्तम और आदर्श महापुरुष और दैवीय शक्ति -सम्पदा और सद्गुण -समूह से संपन्न माने गए हैं ।
कृष्ण का कहना है कि मनुष्य कर्ता नहीं है ; मनुष्य मात्र साधन / माध्यम है कर्मों का, जो उसके लिए नियत हैं ; मनुष्य सम्पूर्ण जगत / श्रृष्टि का एक अंश मात्र है और जगत क्षण -प्रतिक्षण गतिशील और परिवर्तनशील है । मनुष्य की और तत्वों के साथ उसकी अपनी भी भूमिका है , जिसे करना ही करना है , सो मनुष्य को राग -द्वेष से रहित होकर ; सुख -दुःख में समान बुद्धि से नियत कर्म करते रहना चाहिए । नियत कर्म क्या है , इसका निर्णय सक्षम होने पर स्वयं द्वारा अन्यथा जो योग्य हो उससे जानकर अथवा ईश्वर की प्रार्थना -प्रेरणा से प्राप्त कर करना चाहिए , जो अपनी योग्यता , समय और परिस्थितियों के अनुकूल हो । कर्तापन का अभिमान ही मनुष्य के दुखों /मोह /भ्रम का कारण है । इस बात का हमेशा होश रहे कि वह कर्ता नही परन्तु होते हुए महाकर्म का वह एक अंश / भाग /अंग मात्र है । कृष्ण इसी अकर्म में कर्म की कुशलता मानते हैं । ज्ञान , कर्म , योग , भक्ति सभी मार्ग स्थिर- प्रज्ञता को ही प्राप्त होते हैं ।
कुछ लोग कृष्ण को बहुत रानियाँ रखने वाले , रस -रास रचाने वाले , गोपियों से आसक्त रहने वाले ऐसा मानते और उसका ही ज्यादा से ज्यादा प्रचार प्रसार करते /कराते रहते हैं , ऐसे लोग बुद्धि -विलासी , लम्पट , कपटी , अज्ञानी और महामूर्ख हैं । इनकी बातों पर ध्यान नही देना चाहिए । कृष्ण इतने महान ज्ञानी , दार्शनिक ,राजनेता , योगी , युगपुरुष ,वीर पुरूष और आदर्श-पुरूष होते हुए विपरीत आचरण कैसे करते ? कृष्ण जो गीता के कथाकार , महाभारत के नायक /निदेशक /सारथी रहे और जिनका इतना उदात्त चरित्र हो , वे सर्व -प्रिय , लोक-प्रिय रहे , अपने सिद्धांतों से अन्यथा उनका ब्यवहार था , यह संभव नही है । अतः यह सब कुछ उनका ब्यापार है जो कृष्ण की आड़ में अपनी अतृप्त वासना , लम्पटता , विषय लोलुपता का खुल कर प्रदर्शन करने की छूट लेना चाहते हैं । इनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक नही , ऐ दमित , कुंठित और अभिशप्त हैं ,इन पर ध्यान न दें । (जब कुछ संत . अधिकारी IAS , IPS पुरूष होकर और राधा बन कर नाचते हैं तो समझिये ऐ चाहे जितने बड़े विद्वान और पदवाले हों , मूर्ख , लम्पट , दमित , कुटिल ,मानसिक-रोगी और कपटी हैं इनकी दवा होनी चाहिए ।)
सभी महापुरुषों के सम्बन्ध में उनके नालायक शिष्य कुछ ऐसे ही अंतर्विरोधी विचार - ब्यवहार चला देते हैं जो सहज ही मूर्खता -पूर्ण होते हैं हमें इनसे सावधान रहना चाहिए ।ऐ तथाकथित शिष्य , शिष्य की खाल में भेडिए ही हैं जो धर्म के द्वारा धर्म का विनाश करने पर तुले हुए हैं ; जैसे .....
१ - महात्मा बुद्ध ईश्वर के अस्तित्व पर मौन रहे और कहा , '' आप्त दीपो भाव '' परन्तु उनके शिष्यों ने उन्हें भगवान -बुद्ध बना दिया और ईश्वर का अवतार बता रहे है । पुनश्च बुद्ध ने मूर्ति -पूजा का विरोध किया परन्तु उनके शिष्यों ने पुरी दुनिया में उनकी मूर्तियाँ स्थापित कीं ।
२- श्री राम ने सीता को बन में भेज दिया , जब कि ऐसा बच्चों कोशीक्षा देने के लिए महर्षि वाल्मीकि के आश्रम भेजा गया हो । तुलसी दास ने राम चरित मानस में ऐसा उल्लेख भी नही किया ।
३- महावीर उस काल में थे जब वस्त्र नही थे सो जंगल में वस्त्र की आवश्यकता भी क्या और वे महा संयमी भी थे परन्तु अब जैन -संत समाज में भी निर्वस्त्रl ही रहने लगे ।
४- मार्क्स नेऐ ईश्वर का निषेध किया ,परन्तु कम्युनिस्ट मार्क्स को गरीबों का मसीहा / भगवान बताने लगे
५- जो लोग ब्राह्मण-परम्परा , पैर छूने को ग़लत , अमानवीय और मनुबादी बताते हैं , जब उनका पैर छूया जाय तो अपार प्रसन्न हो जाते हैं ।
६-धर्म के द्वारा हिंसा , उग्रबाद, , आतंक बाद और बालक , स्त्री और निरपराध को मारना , कत्ल करना उचित बताते हैं ।
७- ईशा मसीह के अनुयायी अंग्रेज और यूरोप देशी सम्राज्यबादी और विस्तारवादी हुए ।
सो इन सब बातों का निर्णय , विवेक , तर्क और सहज वैज्ञानिक बुद्धि से करना चाहिए ।
कृष्ण का कहना है कि मनुष्य कर्ता नहीं है ; मनुष्य मात्र साधन / माध्यम है कर्मों का, जो उसके लिए नियत हैं ; मनुष्य सम्पूर्ण जगत / श्रृष्टि का एक अंश मात्र है और जगत क्षण -प्रतिक्षण गतिशील और परिवर्तनशील है । मनुष्य की और तत्वों के साथ उसकी अपनी भी भूमिका है , जिसे करना ही करना है , सो मनुष्य को राग -द्वेष से रहित होकर ; सुख -दुःख में समान बुद्धि से नियत कर्म करते रहना चाहिए । नियत कर्म क्या है , इसका निर्णय सक्षम होने पर स्वयं द्वारा अन्यथा जो योग्य हो उससे जानकर अथवा ईश्वर की प्रार्थना -प्रेरणा से प्राप्त कर करना चाहिए , जो अपनी योग्यता , समय और परिस्थितियों के अनुकूल हो । कर्तापन का अभिमान ही मनुष्य के दुखों /मोह /भ्रम का कारण है । इस बात का हमेशा होश रहे कि वह कर्ता नही परन्तु होते हुए महाकर्म का वह एक अंश / भाग /अंग मात्र है । कृष्ण इसी अकर्म में कर्म की कुशलता मानते हैं । ज्ञान , कर्म , योग , भक्ति सभी मार्ग स्थिर- प्रज्ञता को ही प्राप्त होते हैं ।
कुछ लोग कृष्ण को बहुत रानियाँ रखने वाले , रस -रास रचाने वाले , गोपियों से आसक्त रहने वाले ऐसा मानते और उसका ही ज्यादा से ज्यादा प्रचार प्रसार करते /कराते रहते हैं , ऐसे लोग बुद्धि -विलासी , लम्पट , कपटी , अज्ञानी और महामूर्ख हैं । इनकी बातों पर ध्यान नही देना चाहिए । कृष्ण इतने महान ज्ञानी , दार्शनिक ,राजनेता , योगी , युगपुरुष ,वीर पुरूष और आदर्श-पुरूष होते हुए विपरीत आचरण कैसे करते ? कृष्ण जो गीता के कथाकार , महाभारत के नायक /निदेशक /सारथी रहे और जिनका इतना उदात्त चरित्र हो , वे सर्व -प्रिय , लोक-प्रिय रहे , अपने सिद्धांतों से अन्यथा उनका ब्यवहार था , यह संभव नही है । अतः यह सब कुछ उनका ब्यापार है जो कृष्ण की आड़ में अपनी अतृप्त वासना , लम्पटता , विषय लोलुपता का खुल कर प्रदर्शन करने की छूट लेना चाहते हैं । इनका मानसिक स्वास्थ्य ठीक नही , ऐ दमित , कुंठित और अभिशप्त हैं ,इन पर ध्यान न दें । (जब कुछ संत . अधिकारी IAS , IPS पुरूष होकर और राधा बन कर नाचते हैं तो समझिये ऐ चाहे जितने बड़े विद्वान और पदवाले हों , मूर्ख , लम्पट , दमित , कुटिल ,मानसिक-रोगी और कपटी हैं इनकी दवा होनी चाहिए ।)
सभी महापुरुषों के सम्बन्ध में उनके नालायक शिष्य कुछ ऐसे ही अंतर्विरोधी विचार - ब्यवहार चला देते हैं जो सहज ही मूर्खता -पूर्ण होते हैं हमें इनसे सावधान रहना चाहिए ।ऐ तथाकथित शिष्य , शिष्य की खाल में भेडिए ही हैं जो धर्म के द्वारा धर्म का विनाश करने पर तुले हुए हैं ; जैसे .....
१ - महात्मा बुद्ध ईश्वर के अस्तित्व पर मौन रहे और कहा , '' आप्त दीपो भाव '' परन्तु उनके शिष्यों ने उन्हें भगवान -बुद्ध बना दिया और ईश्वर का अवतार बता रहे है । पुनश्च बुद्ध ने मूर्ति -पूजा का विरोध किया परन्तु उनके शिष्यों ने पुरी दुनिया में उनकी मूर्तियाँ स्थापित कीं ।
२- श्री राम ने सीता को बन में भेज दिया , जब कि ऐसा बच्चों कोशीक्षा देने के लिए महर्षि वाल्मीकि के आश्रम भेजा गया हो । तुलसी दास ने राम चरित मानस में ऐसा उल्लेख भी नही किया ।
३- महावीर उस काल में थे जब वस्त्र नही थे सो जंगल में वस्त्र की आवश्यकता भी क्या और वे महा संयमी भी थे परन्तु अब जैन -संत समाज में भी निर्वस्त्रl ही रहने लगे ।
४- मार्क्स नेऐ ईश्वर का निषेध किया ,परन्तु कम्युनिस्ट मार्क्स को गरीबों का मसीहा / भगवान बताने लगे
५- जो लोग ब्राह्मण-परम्परा , पैर छूने को ग़लत , अमानवीय और मनुबादी बताते हैं , जब उनका पैर छूया जाय तो अपार प्रसन्न हो जाते हैं ।
६-धर्म के द्वारा हिंसा , उग्रबाद, , आतंक बाद और बालक , स्त्री और निरपराध को मारना , कत्ल करना उचित बताते हैं ।
७- ईशा मसीह के अनुयायी अंग्रेज और यूरोप देशी सम्राज्यबादी और विस्तारवादी हुए ।
सो इन सब बातों का निर्णय , विवेक , तर्क और सहज वैज्ञानिक बुद्धि से करना चाहिए ।
4 comments:
really nice. thanks a lot dear sir, it is brief conclusion of world largest religious book ( mahagranth) & eloborated suggestion/clarification on mental blocked people's and their's baseless urguments about our pious "GOD KRISHNA" .
Hello Sir,
Well written.
Shri Krishna was a opposer of worshiping, In one of the stories he prohibited people from worshipping Indra for rains. This was incredible thing to do in India, where even today, we vote for Ram mandir type issues.
And That too getting away with it, wrath of Indra, by doing something similar as to lift a mountain, so daunting a task no body can think of undertaking such socially relevent measures today.
On the contrary Shri Krishna is worshiped, and has become most worshipped god today, thanks to dharam gurus, who are funded by traders and even by trade unions to conceal thier selfishness and political motives in such sat-sang. Krishna is for long time become god of the rich and traders, and thus came the image of shri Krishna as in "Ras and Gopiyan"
Sorry for taking every thing social as I have been reading Marx :)
It is very true with the present situation in the UP's leadership...
but it is contemporary too.
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