ॐ हरी .......
.'' कर्म प्रधान विश्व करि राखा / जो जस करै , सो तस फल चखा [मानस में तुलसी ]
कहा जाता है परमात्मा ने मनुष्य को अपने ही प्रतिरूप में बनाया ,परमात्मा असीमित , परम स्वतंत्र और त्रुटि रहित चैतन्य शक्ति है जिसके विचार और कार्य एक ही होते है जब कि मनुष्य को विचार को कार्य में बदलना होता है , मनुष्य को उसके भिन्न भिन्न उत्तेजनाओं और परिस्थितियों में निर्णय लेने में एक स्वतन्त्रता तो होती है पर यह स्वतंत्रता केवल निर्णय लेने तक रहती है , निर्णय लेने के बाद कार्य कर लेने या हो जाने पर उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है और कृत कार्य के अनुसार फल निश्चित हो जाता है ,.... यही मनुष्य की स्वतंत्रता ही उसके दुःख का कारण भी बन जाती है , तब , जब वह निर्णय लेने में गलती करता है , चाहे जान बूझ कर या चूक से , तब उसे इस कर्म -फल को भोगना ही पड़ता है जो उसने कर लिया है ....सो मनुष्य की स्वतन्त्रता ही उसके सुख दुःख का कारण भी है , बुद्ध ने भी कुछ ऐसा ही कहा है और हमारे वेदान्त और गीता , मानस भी यही कहते है ....इमैनुअल कैंट तो कर्म और फल को एक ही बताता है ....अतः कर्म -निर्णय लेने में चूक न होने पाए इस लिए हम ईश्वर से प्रार्थना करते है , क्योंकि हम उसी के अंश हैं और हमारी चेतना से परमात्मा / वैश्विक चेतना से सदा ही संपर्क , सम्बन्ध बना रहता है ..कहिये परमात्मा का एक अंश हमारे रोम रोम में ब्याप्त हुआ रहता है
.'' कर्म प्रधान विश्व करि राखा / जो जस करै , सो तस फल चखा [मानस में तुलसी ]
कहा जाता है परमात्मा ने मनुष्य को अपने ही प्रतिरूप में बनाया ,परमात्मा असीमित , परम स्वतंत्र और त्रुटि रहित चैतन्य शक्ति है जिसके विचार और कार्य एक ही होते है जब कि मनुष्य को विचार को कार्य में बदलना होता है , मनुष्य को उसके भिन्न भिन्न उत्तेजनाओं और परिस्थितियों में निर्णय लेने में एक स्वतन्त्रता तो होती है पर यह स्वतंत्रता केवल निर्णय लेने तक रहती है , निर्णय लेने के बाद कार्य कर लेने या हो जाने पर उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है और कृत कार्य के अनुसार फल निश्चित हो जाता है ,.... यही मनुष्य की स्वतंत्रता ही उसके दुःख का कारण भी बन जाती है , तब , जब वह निर्णय लेने में गलती करता है , चाहे जान बूझ कर या चूक से , तब उसे इस कर्म -फल को भोगना ही पड़ता है जो उसने कर लिया है ....सो मनुष्य की स्वतन्त्रता ही उसके सुख दुःख का कारण भी है , बुद्ध ने भी कुछ ऐसा ही कहा है और हमारे वेदान्त और गीता , मानस भी यही कहते है ....इमैनुअल कैंट तो कर्म और फल को एक ही बताता है ....अतः कर्म -निर्णय लेने में चूक न होने पाए इस लिए हम ईश्वर से प्रार्थना करते है , क्योंकि हम उसी के अंश हैं और हमारी चेतना से परमात्मा / वैश्विक चेतना से सदा ही संपर्क , सम्बन्ध बना रहता है ..कहिये परमात्मा का एक अंश हमारे रोम रोम में ब्याप्त हुआ रहता है
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