मनुष्य का जीवन छोटा और ज्ञान अपार है । सो एक ने जो जाना , समझा , परखा ; उसे दूसरे को , अपनी अगली संतति को दे दिया । ऐसे ही ज्ञान की यात्रा चली । पहले लोग स्मृति से इसे ले आए , इसी कारन वेदों को श्रुति / स्मृति कहा । ज्ञान की इस जुटाऊ परम्परा में कभी योग्य आए तो कभी अयोग्य भी और इन्ही के अनुसार ज्ञान भी उत्तम , मध्यम और निकृष्ट का मेल हो गया । शुद्ध ज्ञान संभव नही ।
कल जो ज्ञान सही था वह विज्ञानं द्वारा आज ग़लत सिद्ध हो गया , जैसे चंद्रमा पृथ्वी का ग्रह तो है और हमारे जीवन को प्रभावित भी करता होगा परन्तु यह सही नही कि राहु केतु उसे निगल जाते हैं ।अब पुराने ज्ञान में से हमें इतना वहीँ जस का तस त्यागना होगा , निगलने वाली बात । किसी चिर ज्ञान को - १-समय , २- स्थान , ३- परिस्थिति के अनुसार ही देखना , समझना , ग्रहण करना ।
हमें अपने पूर्वजों से अर्जित ज्ञान से वह लेना , प्रयोग करना , सिखाना जो वैज्ञानिक , समीचीन , संगत है । शेष पर कोई टीका टिप्पणी से क्या लाभ , उसे वहीँ रहने दीजिये आदर सहित , जैसे हम अपने धरोहर /ताज महल / गाँधी जी के चश्मे(इनका उपयोग ?) परन्तु हम रखते हैं , आदर के नाते ।
तुलसी ने सभी वेद, पुरानों , शाश्त्रों और महानग्रंथों का गहन अध्ययन किया , फ़िर लगभग सत्तर की उम्र में मानस की रचना की और प्राक्कथन में कहा - '' नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद् '' वेद पुरानों में जो उचित / सम्मत / ग्रहणीय लगा और कुछ मेरा योगदान भी है । उन्हों ने यह तो नही कहा वेद पुराण अब बेकार हैं , फेकों इन्हे , अब मेरा मानस पढो । मानस वेद पुरानों का सार है । आप भी जो सार लगे उसे लें / पढ़ें और जो कालातीत हो गया , उसे वहीँ रहने दें । ५०० वर्ष हो गए , मानस को और ५००० वर्ष वेद को , परन्तु अभी भी हम कितना ले सकते है , वहां से ऐ तो पढ़ने से पता चलेगा , - '' सत्यमेव जायते '' तो नही बदला । अचरज तो यह कि ५००० वर्षपूर्व की वेदांत थियरी अभी भी विज्ञानं नही काट सका । सर्व पल्ली राधा कृष्णन कहते हैं , '' कोई विकल्प ही नही है ; विज्ञानं जायेगा तो वहीँ जायेगा जहाँ वेदांत हजारों साल पहले पहुंच चुका है और यदि उससे आगे गया तो वेदांत से होकर ही जाने का रास्ता है । '' एक सुधी ज्ञान साधक का गुण -- १- ज्ञान का चुनाव करो विवेक से २ - ज्ञान संग्रह करो । ३ - हो सके तो ज्ञान का संबर्धन करो । ४ - ज्ञान का सरंक्षण करो । ५ - समय समय पर संशोधन , परिवर्तन और प्राचीन और नवीन का आमेलन होता रहे । ६ । दृष्टि वैज्ञानिक हो और सद्गुणों का समन्वय हो । यही बात सभी धर्मों , साहित्यों , महापुरुषों के कथनों /आदेशों / उपदेशों पर लागू करें । बहस में समय ब्यर्थ करने से अपना जीवन तो बीत जायेगा , रीता ही रीता । '' डासत ही गई बीति निसा सब कबहूँ न नाथ नीद भर सोयो । - तुलसी विनय पत्रिका में ।
सारा जीवन संदेह / भ्रम / बहस / विवाद /आलोचना / निंदा में ब्यर्थ न कर सीधे सपाट ज्ञान / भक्ति / कर्म कुछ कर लेना चाहिए । सवाल होता है मन्दिर जाना चाहिए की नही , अरे !! तुम जाओ या नजाओ , विवाद क्यों बनाते हो ; मै मन्दिर नहीं जाता तो ? दूसरे जाते है तो ? हमारा कुछ लेते है , नही न ?सब अपने स्तर और समझ से रहें , अच्छा सीख लें तो बता दो और उन्हें चुनने दो , वरना इसपर लडो मत । यह एक उदहारण था । ज्ञान साधना में लडो मत । सीखो । पालनं करो । सीखो । सिखाओ , हाँ , जब कोई सीखने को राजी हो । तथास्तु ।
कल जो ज्ञान सही था वह विज्ञानं द्वारा आज ग़लत सिद्ध हो गया , जैसे चंद्रमा पृथ्वी का ग्रह तो है और हमारे जीवन को प्रभावित भी करता होगा परन्तु यह सही नही कि राहु केतु उसे निगल जाते हैं ।अब पुराने ज्ञान में से हमें इतना वहीँ जस का तस त्यागना होगा , निगलने वाली बात । किसी चिर ज्ञान को - १-समय , २- स्थान , ३- परिस्थिति के अनुसार ही देखना , समझना , ग्रहण करना ।
हमें अपने पूर्वजों से अर्जित ज्ञान से वह लेना , प्रयोग करना , सिखाना जो वैज्ञानिक , समीचीन , संगत है । शेष पर कोई टीका टिप्पणी से क्या लाभ , उसे वहीँ रहने दीजिये आदर सहित , जैसे हम अपने धरोहर /ताज महल / गाँधी जी के चश्मे(इनका उपयोग ?) परन्तु हम रखते हैं , आदर के नाते ।
तुलसी ने सभी वेद, पुरानों , शाश्त्रों और महानग्रंथों का गहन अध्ययन किया , फ़िर लगभग सत्तर की उम्र में मानस की रचना की और प्राक्कथन में कहा - '' नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद् '' वेद पुरानों में जो उचित / सम्मत / ग्रहणीय लगा और कुछ मेरा योगदान भी है । उन्हों ने यह तो नही कहा वेद पुराण अब बेकार हैं , फेकों इन्हे , अब मेरा मानस पढो । मानस वेद पुरानों का सार है । आप भी जो सार लगे उसे लें / पढ़ें और जो कालातीत हो गया , उसे वहीँ रहने दें । ५०० वर्ष हो गए , मानस को और ५००० वर्ष वेद को , परन्तु अभी भी हम कितना ले सकते है , वहां से ऐ तो पढ़ने से पता चलेगा , - '' सत्यमेव जायते '' तो नही बदला । अचरज तो यह कि ५००० वर्षपूर्व की वेदांत थियरी अभी भी विज्ञानं नही काट सका । सर्व पल्ली राधा कृष्णन कहते हैं , '' कोई विकल्प ही नही है ; विज्ञानं जायेगा तो वहीँ जायेगा जहाँ वेदांत हजारों साल पहले पहुंच चुका है और यदि उससे आगे गया तो वेदांत से होकर ही जाने का रास्ता है । '' एक सुधी ज्ञान साधक का गुण -- १- ज्ञान का चुनाव करो विवेक से २ - ज्ञान संग्रह करो । ३ - हो सके तो ज्ञान का संबर्धन करो । ४ - ज्ञान का सरंक्षण करो । ५ - समय समय पर संशोधन , परिवर्तन और प्राचीन और नवीन का आमेलन होता रहे । ६ । दृष्टि वैज्ञानिक हो और सद्गुणों का समन्वय हो । यही बात सभी धर्मों , साहित्यों , महापुरुषों के कथनों /आदेशों / उपदेशों पर लागू करें । बहस में समय ब्यर्थ करने से अपना जीवन तो बीत जायेगा , रीता ही रीता । '' डासत ही गई बीति निसा सब कबहूँ न नाथ नीद भर सोयो । - तुलसी विनय पत्रिका में ।
सारा जीवन संदेह / भ्रम / बहस / विवाद /आलोचना / निंदा में ब्यर्थ न कर सीधे सपाट ज्ञान / भक्ति / कर्म कुछ कर लेना चाहिए । सवाल होता है मन्दिर जाना चाहिए की नही , अरे !! तुम जाओ या नजाओ , विवाद क्यों बनाते हो ; मै मन्दिर नहीं जाता तो ? दूसरे जाते है तो ? हमारा कुछ लेते है , नही न ?सब अपने स्तर और समझ से रहें , अच्छा सीख लें तो बता दो और उन्हें चुनने दो , वरना इसपर लडो मत । यह एक उदहारण था । ज्ञान साधना में लडो मत । सीखो । पालनं करो । सीखो । सिखाओ , हाँ , जब कोई सीखने को राजी हो । तथास्तु ।
2 comments:
सबसे पहले तो आभार व्यक्त करना चाहुगा कि अपने हिंदी में लेख "ज्ञान साधना /परम्परा " लिखा ! किसी विषय ,व्यक्ति ,धर्म परम्परा , पर चर्चा या आलोचना अथवा परिचर्चा करने से उसके महत्व या आस्था को ठेस नहीं पहुचती बल्कि बढ़ जाती है हाँ यदि हम पूर्वजो नहीं करेगे तो आने वाली पीढी कैसे उन्हें जानेगी ! पूर्वजो या महा पुरुषों के ज्ञान या विज्ञानं पर परिचर्चा तो जरुरी है और परिचर्चा आलोचना तर्क वितर्क से उसकी महत्वा पर कोई असर नहीं पड़ता है
आपका लेख "ज्ञान की साधना" पढ़ कर मन सोचने को विवश हुआ कि कदाचित ऐसी विचार दशा कभी तो रही होगी हमारे जगत गुरु "आर्यावर्त" में ..! सत्य ही उल्लिखित किया है आपने " ज्ञान की इस जुटाऊ परम्परा में कभी योग्य आए तो कभी अयोग्य भी और इन्ही के अनुसार ज्ञान भी उत्तम , मध्यम और निकृष्ट का मेल हो गया ।अतः शुद्ध ज्ञान संभव नही । "
आधुनिक परिवेश में देखिये तो कितने स्वयं घोषित "विज्ञपुरुष" मात्र अपूर्ण ज्ञान के बल पर समाज में "वर्ज्य" को "अपेक्षित" के स्वरुप में महिमा मंडित कर रहे हैं..!! समय के साथ ज्ञान का संसोधन आवश्यक है, वस्तुतः इसी लिए महर्षियों ने तटस्थता कि आवश्यकता बताई, राम चरित मानस में भी गुरु वशिष्ट ने राम को ज्ञान देते समय कहा था " सदैव ज्ञान से परे रहो, कर्म से परे रहो .. !" इसका अर्थ येही था कि अपने आप में मंथन चलता रहे, अभिमान न हो, कोई भी ज्ञान सम्यक नहीं हो सकता.. यह उचित भी नहीं है, क्योकि ज्ञान एक सतत प्रक्रिया है, इसमें समय वातावरण का विशेष योगदान है| मैंने कितने ऐसे लोगो को देखा है जो मात्र विश्वविद्यालयीय शिक्षा का अंग बन सके, घोर विडंबना यह कि उसके बाद उनका चिंतन "अपूर्ण और अव्यवस्थित" ज्ञान के कारन अत्यंत घातक हो चुका है | वर्ग विशेष उनको ही अपना आदर्श मानता है और उनकी नियति उनको मात्र एक अन्धानुयायी बनने को विवश कर देती है| आधुनिक कुछ राजनीतिज्ञ इसका ज्वलंत उदाहरण हैं, अंत में बस एक व्यथा सी शेष है... कब हमे सच में "ज्ञान" का "ज्ञान" होगा, परन्तु जब भी यह सार्वभौमिक ज्ञान होगा, अपने ज्ञान पर रुदन ही होगा ..||
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