श्रोता सचेत न हो और जागरूकता से न सुने , समझे तो लाखों ग्रन्थ ,कथा , उपदेश , प्रवचन दीजिये , सब ब्यर्थ ही है (हजारों लाखो साल से इसी तरह की कोशिशें चली हैं )....परन्तु यदि श्रोता सचेत हो सुने तो ''मौन ही काफी है ''इसी से बुद्ध ने मौन को सर्वोत्तम अभिब्यक्ति कहा .तुलसी दास ने भी मौन को प्रथम , ध्वनि को दूसरे , शब्द को तीसरे , रसों को चौथे , छंद को पांचवें स्तर का श्रोता कहा है मानस में .
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सीधा सा उपाय है , - जो ब्यक्ति प्रकृति / परमात्मा / ऋत / विधि (नियम) के अनुकूल चलता है ; उसे भी प्रकृति ,परमात्मा , ऋत , विधि और सभी का सहयोग /अनुकूलता प्राप्त होती है और तदैव सुख ,सम्पन्नता , संतोष आनंद मिलता ही है , इसके उलट जो इन के प्रतिकूल जीवन को ले जाता है उसे नियमतः दुःख, निराशा , असंतोष , असफलता मिलती है और फिर लोग अपने को दोष न देकर ईश्वर को अन्यायी और दोषी कहते फिरते है , भाग्य को कोसते हैं - कबीर कहते हैं -- '' करता था तो क्यों किया ? अब करि क्यों पछताय / बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाय ?
अक्ल अय्यार * है सो भेस बदल लेती है / इश्क बेचारा , न जाहिद1 है , न मुल्ला न , हाकिम
* चालाक /धूर्त ; 1 - संयमी /नैतिक
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