Friday, February 20, 2009

अंहकार और इसका संसार

सांख्य दर्शन में प्रकृति ( सत् , रज , तम ) तिन गुणों वाली ,जड़ , प्रधान, अपने ही विकृति से २३ और तत्व विकसित कर पूरा संसार बनाती है । विकास इस प्रकार है - १- प्रकृति > २- महत (बुद्धि ) ३ - अंहकार ८ - पञ्च तन्मात्र ( रस , रूप , गंध , ध्वनि और स्पर्श ) 13 -पञ्च महाभूत (क्षिति , जल , पावक , गगन और समीर ) २३. - पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ और पञ्च कर्मेन्द्रियाँ और २४ - मन । २५ - पुरूष है , जो चेतन है , विशेष है , कई है और परम पुरूष ईश्वर है जो संसार नही रचता । सन्दर्भ यही है ; अब अंहकार की बात करें ।
अंहकार का अर्थ है - मै हूँ ऐसा ; मेरा यह अलग रूप है ; मेरा आकार , मेरी उपस्थिति , मेरा अस्तित्व मै कर्ता ऐसा । इसी भाव ने पैदा किया , मै और तुम और वह और यह । अंहकार का घर है मन और बुद्धि अलग होने का भाव पैदा कराती है । अंहकार मन में बुद्धि के द्वारा पैदा होता है । बस्तुतः मन वह स्तर या स्थान है जहाँ पदार्थ (मैटर ) उर्जा (इनर्जी ) में बदल जाता है । मन मस्तिष्क की कोशिकाओं का परिवर्तित रूप है और फ़िर इसी मन में विचार /बुद्धि / थाट और अंत में अंहकार / इगो उत्पन्न होता है । यही अंहकार सारे सांसारिक क्रियाओं / संबंधों / समस्याओं /पसंद -नापसंद / अच्छा -बुरा / सुख -दुःख / पाप -पुण्य का कारक और कारण है ।
ऊपर कही बात एक उदहारण से समझाने की कोशिश > राजू राम को पसंद करते हैं और रावण को नापसंद। । ऐ तीन लोग है , राजू , राम और रावण । तीनो का तीन स्वरुप है , कहिये अपना स्वयं का रूप , यानि कि तीन अंहकार । दो लोग एक तरह के हैं , तीसरा अलग तरह का । राजू राम को इस लिए पसंद करते हैं क्योंकि राम का अंहकार राजू से मिलता है । परन्तु यदि राजू रावण को नापसंद करना छोड़ दें तो राम को पसंद करने का कोई अर्थ ही नही रह जाता । इसी प्रकार राम को राजू पसंद न करें तो रावण को नापसंद करना भी कोई मायने नही रखता । पसंद और नापसंद राजू के अंहकार का नतीजा है । देखिये , दोस्ती खतम हो जाय तो दुश्मनी का कोई अर्थ नहीं होता । और ठीक इसी तरह कोई दुश्मनी न हो तो दोस्ती की जरुरत भी समझ में नही आती । इसीलिए कबीर साहब ने कहा , -कबिरा खड़ा बजार में मांगे सब की खैर । ना काहू से दोस्ती न काहू से वैर ॥ (यहाँ बजार का अर्थ संसार से है ) वास्तव में अंहकार गिर जाय तो फ़िर हम होते ही नहीं । (होते नहीं का अर्थ , अलग नही होते ) असल तो यही है कि हम हैं ही नहीं परन्तु अंहकार का खेल है कि हम हो जाते हैं और जब हम हो जातें है तो सारी दुनिया का खेल सही हो जाता है । हम एक रूप हैं , प्रकृति के और दूसरा भी एक रूप है ,असली कोई नहीं । हम सभी छाया मात्र हैं और इसका हमें पता , ज्ञान नही है , यही संसार का करिश्मा है , जिसे सर्वोत्तम बुद्धि द्वारा उलझाया गया है । हम सब छाया / इमेज हैं । वास्तव में सब प्रकृति का विकास है।
यदि हम वहां पहुँच सकें , जहाँ से देख लें कि हम (देखने वाला ) और जिसे हम देख रहें हैं दोनों वास्तविक नहीं हैं , इमेज हैं , वास्तविक तो प्रकृति ही है , और सभी कुछ प्रकृति की विकृति है /विकास है । हम सब एक ही तत्व से विकसित हुए हैं । हमारे भीतर ही वह पुरूष भी है जो चेतन है परन्तु वह प्रकृति का साथ होने से भ्रमित होकर अंहकार के वश होकर अपने को भूल गया है । यदि यही चेतना मिल जाय तो सारी बहुलता /द्विविधा / द्वैत समाप्त हो जय और हम अपने स्वरुप को देख सकें । वेदांत में इसे आत्मज्ञान , बुद्धों में मोक्ष , सांख्य में भी मोक्ष , योग में समाधि , रजनीश इसे ध्यान /समाधि / जैन निर्वाण , कृष्ण मूर्ति अवेयरनेस , कृष्ण इसे अकर्तापन का ज्ञान कहते हैं । तुलसीदास जी ने ऐसे कहा है , - "जथा अनेक वेश धरि नृत्य करै नट कोइ । सोइ सोइ भाव देखावै अपुन होई न सोइ ॥ " सांख्य में कहा है , जो इस नट की नृत्य कला को एक बार ज्ञान के द्वारा देख लेता है और जान जाता है कि यह सब नाटक ही है वह इस संसार को अच्छी तरह से समझ कर संतुष्टहो जाता है । परन्तु इसके लिए अपने रूप को /छाया को / इमेज को गिराना / हटाना पड़ता है । अपने को ही अलग होकर , सभी पूर्वाग्रहों , अहंकारों से भिन्न देखने की क्षमता पैदा करनी पड़ती है । गीता में कृष्ण , - " अहमता ममता मुक्त , पाता परम शान्ति सो । " यह कठिन तो है , तुलसीदास कहते हैं , - कहत कठिन , समुझत कठिन , साधत कठिन विवेक । परन्तु योग कहता है अभ्यास से इसे प्राप्त किया जा सकता है , लगातार साधना और जागरूकता यह समझ पैदा कर सकती है ।

No comments: