Saturday, February 21, 2009

औपचरिक बनाम मौलिक जीवन

आज की समस्या जिससे अधिकतर लोग परेशान हैं , वह है जीवन में सामाजिक संपर्कों की औपचारिकता और परिणाम स्वरुप अविस्वशनियताहम नमस्कार करते हैं , उसे जिसे शायद गाली देना चाहते हैं , अथवा उसके गीत गाते हैं , जिसे देखना चाहते हैं , पसंद करते हैंहम किसी को बताते फिरते हैं कि , - हम आपको बहुत प्रेम करते हैं ; जो भी हो , एक बात है , मै झूठ नही बोलता ; बताऊँ , मैं आपका बहुत आदर करता हूँ , आदि आदिइस प्रकार के सभी संबोधन आपकी कमजोरी साबित करते हैं और सौ में से नब्बे मामलों में आप का दावा झूठा ही होता हैआपका किसी मामले क्या इरादा है , यह सामान्य आदमी को भी आसानी से मालूम हो जाता है , यदि तुंरत नहीं तो थोड़े समय के बाद , थोड़े ब्यवहार के बाद और बुद्धिमान तो तुंरत ही जान लेता हैइस प्रकार आपका एक सामाजिक स्वरुप संपादित हो जाता है और आप अविस्वशनीय हो जाते हैं
मेरा ऐसा मानना है और अनुभव भी है कि आप में जो विचार आते हैं और जो आप ब्यवहार करते हैं दोनों का संप्रेषण सामान रूप से उसको होता है जिससे आप ब्यवहार करते हैं ; - विचार का विचार से और ब्यवहार का प्रत्यक्ष ; और परिणाम यह होता है कि दोनों का समायोजन नही होता अथवा असंतुलित हो जाता हैएक बात ध्यान देने की यह है कि आप जब इस प्रकार का धोके वाला कम कर रहे होते हैं तो आपका दुहरा नुकसान होता हैपहला यह कि आपका संतुलन आज या कल उस आदमी से बिगड़ जाता है और भेद खुल जाता है दूसरा यह कि अपने जो छल कपट और झूठ का सहारा लिया था वह तो आपको मालूम ही था सो आप अपराध - बोध की भावना से ग्रस्त होते चले जाते हैंआपके अवचेतन मन में यह स्वयं के कदाचरण की अपराध- बोध -भावना एकत्रित होकर निम्न परिणाम लाती है - ब्यख्तित्व दोष - हीनता का भाव - असंतुलित ब्यवहार - समायोजन दोष - मानसिक अस्वस्थ्यता - शारीरिक अस्वस्थ्यता - सामाजिक तथा पारिवारिक स्थितियों में समायोजन की समस्या तथा सम्मान में गिरावट - आत्म ग्लानि और पश्चाताप - पुनर्सुधार में कठिनाई१० - आप द्वारा दूसरों की क्षति
, योग में पतंजलि और महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन दोनों का कहना है , -- हम जो विचार करते हैं ,वह सभी जीवों को संप्रेषित होता रहता है और प्रभावित भी करता रहता हैसंक्षेप में पतंजलि के अनुसार यदि आपके मन में हिंसा , मलीनता , संकीर्णता , इर्ष्या , द्वेष , मित्रता , अमित्रता का भाव है तो वह दूसरे पर भीतर ही भीतर प्रकट हो जाता है और वह भी उसी तरह का ब्यवहार करने को प्रेरित हो जाता हैसूत्र है , - " हिंसा तन्निरोधे वैर त्यागः । " अर्थात यदि आप अपने मन से हिंसा का भाव हटा दें तो आपसे लोग वैर त्याग देंगेआइन्स्टीन के बारे में कहानी है कि जब उनकी बहन कोमा में थी तो वे रोज दो घंटे उसके पास बैठ कर प्लेटो की लिखी किताब पढ़ा करते थे , जब डाक्टरों ने उनसे कहा कि आपकी बहन कोमा में है और आपके इस किताब पढ़ने का क्या लाभ जब वो सुन ही नहीं सकती , तो आइन्स्टीन ने कहा मुझे पता है कि वो सुन रही हैतुलसीदास जी ने भी कहा है , - वैर प्रेम नहिं दुरै दुरांयेअर्थात वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपतेयह भी बहुत प्रसिद्ध और पुराणी कहावत है , -- " खैर खून खांसी खुशी , वैर प्रीति मदपानसात छिपायें ना छिपे जानत सकल जहान । " इस बात को जानते हुए भी हम दिन रात कोशिश करते रहते है अपने को और अपने ब्यवहार को छिपाने का तो इसे कौन बुद्धिमानी कहेगा
अतः खुला जीवन , सच्चा ब्यवहार , सरल और सीधा रिश्ता ही सुरक्षित और सम्यक समायोजन प्रदान करता हैगाँधी जी कहते है , -- जैसा विचार हो वैसी ही वाणी बोलो और वैसा ही ब्यवहार भी करो इसमे इधर उधर हेर फेर किया तो तुम्हारा ही नुकसान है । " सांच को आंच नहीजो मन में वही भीतरजब हम किसी को नमस्कार करें तो हमारा दिल भी नमस्कार कर रहा होजब हम किसी को प्यार करें तो उसमे पवित्रता भी होहाँ , हम यह भी कहने का साहस रखें कि हम इस बात पर संदेह करते है , हम आप को पसंद नही करते , हम आपसे सहमत नही हैं या नहीं हो सकतेना कहना सीखिए और जब हाँ कहिये तो वह हमेशा हर परस्थिति में हाँ रहे इसकी पूरी कोशिश करिएकिसी का आदर करते हैं तो मन से करेंविरोध खुल कर करें , धोके से नहींयही सच्चा और सीधा जीवन मार्ग है जहाँ आनंद ही आनंद हैयदि हम सरल और सच्चे मार्ग का अनुसरण नही करते तो उसका परिणाम भोगने से हम बच नही सकते , यह ध्रुव सत्य हैफ़िर तो सर धुन धुन कर पश्चाताप ही शेष रहता है

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