Wednesday, December 2, 2009

गाँधी के ईश्वर .

ईश्वर एक ऐसी विशिष्ट शक्ति और परम सत्ता है जो परिभाषा से परे और प्रत्यक्ष से बाहर है परन्तु अनुभव गम्य है । परमात्मा की परिभाषा असंख्य और उसकी विभूतियाँ अनन्त हैं ; वह अवर्णनीय और अरूप तथा अज्ञात है ; वह सबमें सदैव बराबर बराबर अनुपात में ब्याप्त और अनुस्यूत है । ईश्वर सत्य है और सत् का अर्थ है , होना ; जो कुछ भी अस्तित्व में है वह सब ईश्वर ही है उसके परे कुछ भी नही । सो सत्य परमात्मा और परमात्मा सत्य है। वह कर्ता , अकर्ता और अन्यथा दोनों से परे भी है ; वह श्रष्टा , पालन कर्ता और न्याय कर्ता भी है । युवा अवस्था में उन्हें ज्ञात था कि , ईश्वर सत्य है परन्तु १९२९ में एक कदम और बढ़ कर उन्हों ने कहा , ' सत्य ही ईश्वर है ' ।
ईश्वर सम्बन्धी भारतीय धारणा इतनी व्यापक और सूक्ष्म है कि उसे ब्यक्त करना सरल नही है । वह अनन्त पूर्ण निरपेक्ष है , सब से परे है । उसकी परिभाषा अस्वीकृति के लिए ही प्रस्तुत की जाती है । ** नेति , नेति ** परन्तु हिंदू धर्म में उसके साकार रूप की अवधारण भी मानी है जो सुसंगत और समन्वयबादी है । वास्तव में ईश्वर की आस्तिक धारणा मनुष्य की गंभीरतम दार्शनिक अंतर्दृष्टि की परंपरागत अभिव्यक्ति है । ईश्वर ब्यक्ति नही शाश्वत नियम है ( वेदों में वर्णित ऋत ) परन्तु प्रार्थना के लिए तो साकार , ब्यक्ति रूप में ईश्वर चाहिए । वह हमें सदा अच्छे जीवन के लिए चेतावनी देता रहता है और भयंकर न्यायकर्ता और दंडाधिकारी भी है ; वह हमारे साथ वही करता है जो हम पड़ोसियों के साथ करते हैं और इस मामले में ईश्वर के साथ अज्ञान का कोई बहाना नही चलता । वह भूल सुधार का अवसर देता है , अन्यथा दण्डित भी करता है , ऐसा गाँधी जी का ब्यक्तिगत अनुभव है ।
गाँधी जी कहते हैं , '' मैं अपने छाती पर हाथ रख कर कह सकता हूँ कि मैं ईश्वर को एक क्षण के लिए भी भूलता नही । '' वह गरीबों और जरुरतमंदों की मदद करता है । ईश्वर प्रेम , न्याय , समानता ,नैतिकता और अन्तिम रूप में सत्य का पर्याय है ।

Thursday, September 10, 2009

Wednesday, September 9, 2009

गाँधी - राजनीति और धर्म

गाँधी के अनुसार बिना धर्म के राजनीति नही चल सकती है और न तो धर्म के बिना कोई समाज ब्यवस्थित रह सकता है । धर्म समाज की नीवं है । सार्वजानिक जीवन के मूल में नितांत धार्मिक चेतना और धार्मिक हेतु नीहित है । गाँधी का राजनैतिक दर्शन और उनकी कार्य पद्धति वस्तुतः उनके धार्मिक और नैतिक सिद्धांतों के निष्कर्ष हैं । राजनीति और समाज धर्म के बिना आत्मा रहित शरीर के सामान ही है ।
धर्म से तात्पर्य किसी विशेष धर्म से न होकर ऐसे धर्म से है जो सभी धर्मों के नैतिक नियमों से मेल खता हो और जिसमे सभी के कल्याण के नियम हों । धर्म मानव स्वभाव का वह स्थायी तत्व है जो मानवता के कल्याण और उसकी पूर्ण अभिब्यक्ति के लिए बड़े से बड़े त्याग को तैयार हो। गाँधी जी के अनुसार ऐसा कोई भी धर्म नही है जो मनुष्य को और उसके धार्मिक जीवनको सार्वजनिक जीवन से अलग करे। '' मै पहले एक धार्मिक ब्यक्ति हूँ और तब राजनैतिक या सामाजिक । '' जीवन का लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार है परन्तु इससे वह समाज और राजनीति को छोड़ नही सकता । ऐसा तो हो ही नही सकता कि कोई धार्मिक ब्यक्ति राजनीति और समाज के कार्यों में भाग न ले औरबिना धर्म के कोई कैसे जिंदा रह सकता है . सर्वभूत हित ही मनुष्य का प्रयास होना चाहिए और यह कम अहिंसा द्वारा स्थापित राज्य में ही संभव है। जो कहते हैं धर्म का राजनीति से कोई सम्बन्ध नही है वे न तो राजनीति जानते हैं और न ही धर्म ; जो समाज और देश को प्रेम नही करता और जो समष्टि का हित नही समझता , वह न राजनीति के योग्य है और न धर्म का जानकार ।
गाँधी जी हिंदू धर्म को मानते थे और उनका कहना है कि हिंदू धर्म का उद्येश्य सत्य को जानना है और इस बात से और धर्मों का कोई विवाद नही है न तो सार्वभौमिक नैतिक नियमों पर ही अन्य धर्मों से मतभेद है । सत्य और ईश्वर , प्रेम और अहिंसा , ब्यक्ति और समष्टि हित तो सभी धर्मों का मूल है । धर्म बस्तुतः नैतिक आधार पर सामाजिक समझौते का नियमन है । आदमी के कई जीवन बँटे हुए नही होसकते और धर्म तो उसके जीवन का वह आधार है जिससे उसकी सभी गतिविधियाँ प्रेरित और नियंत्रित होती हैं । धर्म के बिना राजनीति तो रावण की थी ; राम -राज्य तो धर्म से ही चलेगा ।

Wednesday, September 9, 2009

गाँधी को प्रभावित करने वाले तत्व

गाँधी जी को प्रभवित करने वाले धर्म , पुस्तकें , महापुरुष और विचार निम्नवत थे ।
पुस्तकों में गीता का स्थान सर्वप्रमुख है । गाँधी जी प्रति दिन प्रायः गीता का पाठ करते थे और उसपर कई टीकाएँ भी पढीं थीं .उनकी सायंकालीन प्रार्थना में गीता के द्वितीय अध्याय के हिन्दी अनुबाद का पाठ शामिल था , जिसमे स्थित -प्रज्ञा के लक्षण कहे गए हैं । गीता के सम्बन्ध में उन्होंने कहा ''यद्यपि मै इसाई धर्म की बहुत सी बातों का प्रशंसक हूँ तथापि मै अपने को कट्टर इसाई नही मान पाता । हिंदू धर्म जैसा मै उसे जानता हूँ वह मुझे पूरी तरह से संतुष्ट करता है और जो शान्ति मुझे उपनिषद और गीता में मिलाती है वह ईसामसीह की पर्वत - शिक्षा से किसी तरह कमतर नही लगती । जब मै संशय और निराशा से घिरता हूँ तो गीता की तरफ़ देखता हूँ और मुझे समाधान मिल ही जाता है । गीता की मूलभूत शिक्षा इस बात के खिलाफ है कि मुक्ति और सांसारिक जीवन के बीच कोई सीमा रेखा खींची जाय । गीता का आदर्श पुरूष स्थित्प्रग्य , विनम्र और करुणामय है ; वह सुख - दुःख और राग - द्वेष से मुक्त है , उसका शुभाशुभ परिणाम से कोई सम्बन्ध नही , कारण वह पूरी तरह से अहिंसक है क्योंकि हिंसा कर्मफल के उपयोग की इक्षा / नियत पर आधारित है ।''
ईसामसीह की शिक्षाओं ने भी गाँधी जी को प्रेरित किया .गाँधी जी का सत्याग्रह -दर्शन का अधर और श्रोत इसाई धर्म ही है । गाँधी जी कहते हैं कि पर्वत कि शिक्षा ने ही उन्हें सत्याग्रह की उपयुक्तता और मूल्य के प्रति जागृत किया । वे पर्वत की सीख और गीता में कोई भेद नही मानते । इसाई धर्म का मूल प्रेम है और अन्य कोई भी धर्म प्रेम को इतना महान नही बनाता जितना यह क्योंकि इसाई धर्म प्रेम को ही ईश्वर मानता है । परन्तु आश्चर्य यह कि अंग्रेजों ने अपने युद्धों और सम्राज्य बादी कृत्यों से इस सिद्धांत का सदैव निषेध ही किया है । '' यह कि तुमने सुना है कि आंख के बदले आंख परन्तु मै तुमसे कहता हूँ कि बुराई के बदले भलाई और जो तुम्हे एक थप्पड़ मारे उसके सामने दूसरा गाल भी कर देना . '' और ईसा की यह प्रार्थना उनके प्रति जो उन्हें शूली पर चढा रहे थे कि '' हे पिता ! इन्हे माफ़ कर देना क्योंकि वे नही जानते कि वे क्या कर रहे हैं । ''
गाँधी जी अमेरिका के प्रसिद्द अराजकताबादी चिन्तक हेनरी डेविड थोरो से प्रभावित थे जिन्हों ने पहली बार (१८४९ में ) सविनय अवज्ञा शब्द का प्रयोग किया था और वहां की सरकार को कर देने से इंकार कर दिया था ।
रस्किन की पुस्तक ' अन्टू दिस लास्ट 'ने गाँधी को बहुत प्रेरित किया जिसके अनुसार - किसी एक ब्यक्ति का हित सभी ब्यक्तियों के हित में सम्मिलित है ; सबको जीविकापार्जन का बराबर अधिकार है ; शारीरिक परिश्रम अनिवार्य है ; नाई के कार्य का महत्व , अधिवक्ता के कार्य के बराबर है ; आत्मा परम तत्व है और मनुष्य स्वभाव से ही अच्छा और सदगुणी है ; बुद्धि की अपेक्षा चरित्र भारी है ; राजनीति और अर्थशाश्त्र में नैतिकता जरुरी है ; धनी गरीबों का सहयोग करें । इन सभी बातों में गाँधी - रस्किन एक मत थे ।
टालस्टाय गाँधी के समकालीन थे और उनका अहिंसा और प्रेम का सिद्धांत गाँधी जी के मन - माफिक था । गाँधी जी कहते हैं मेरे हिंसा को साधन के रूप में प्रयोग करने का जो दुबिधा का मन था , वह टालस्टाय की किताब ' द किंगडम आफ गाड इज विदीन यू '' पढ़ने से दूर हो गया और पूरी तरह से अहिंसा का विचार दृढ़ हो गया ।
जो भी और जहाँ से भी गाँधी जी ने सीखा और पढ़ा हो , सभी सिद्धांतों का प्रयोग , उनका अपना मौलिक ही था जैसा अभी तक इतिहास में और किसी ने किया । अंग्रेज लेखक यह मानते हैं की ईसा के उपदेशों को जिन्हें हम अंग्रेज हजारों हजारों सालों से स्वर्ग की बातें समझते रहे , पता चला कि एक भारतीय उन सिद्धांतों का प्रयोग पृथवी पर ही दक्षिण अफ्रीका में कर रहा रहा और वह भी अंग्रेजों के ही खिलाफ ।

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