Friday, November 6, 2009
सत्याग्रह
विजेता के हाथ अपनी आत्मा को बेचने से इंकार करने का अर्थ है कि तुम वह काम नहीं करोगे जिसे करने के लिए तुम्हारी अंतश्चेतना तुम्हें रोकती है। सत्याग्रही का 'न' अटल 'न' और उसका 'हां' शाश्वत 'हां' होता है। केवल ऐसे ही व्यक्ति में सत्य और अहिंसा का पुजारी होने की ताकत होती है। लेकिन यह जरूर है कि आदमी को दृढ़ निश्चय और जिद का फर्क समझना चाहिए।
सत्याग्रही भय को सदा के लिए छोड देता है। इसलिए वह विरोधी पर विश्वास करने से कभी डरता नहीं है। विरोधी बीस बार भी उसको धोखा दे जाए, वह इक्कीसवप बार उस पर विश्वास करने के लिए तैयार रहेगा। बात यह है कि मानव प्रकृति में अडिग विश्वास ही सत्याग्रही के धर्म का सार है।चूंकि सत्याग्रह सीधी कार्रवाई का सबसे शक्तिशाली रूप है, इसलिए सत्याग्रही सत्याग्रह शुरू करने से पहले बाकी सब तरीकों पर अमल करके देख लेता है। तदनुसार वह पहले संबंधित प्राधिकारी से संपर्क करेगा और उसे जारी रखेगा, फिर जनमत का ध्यान आकर्षित करेगा, लोगों को संबंधित समस्या से अवगत कराएगा, जो उसकी बात सुनना चाहते हैं उनके समक्ष शांतिपूर्वक अपना पक्ष प्रस्तुत करेगा, और जब सभी उपाय चुक जाएंगे तब सत्याग्रह की शरण लेगा। लेकिन एक बार अंतर्वाणी का आदेश सुन लेने के बाद यदि वह सत्याग्रहश्शुरू कर देता है तो फिर किसी भी हालत में उससे पीछे नहीं हटेगा। सत्याग्रही यद्यपि हर समय संघर्ष के लिए तैयार रहता है, पर उसे शांति के लिए भी उतना ही उत्सुक रहना चाहिए। उसे शांति के किसी भी सम्मानजनक अवसर का स्वागत करना चाहिए।
सत्याग्रही भय को सदा के लिए छोड देता है। इसलिए वह विरोधी पर विश्वास करने से कभी डरता नहीं है। विरोधी बीस बार भी उसको धोखा दे जाए, वह इक्कीसवप बार उस पर विश्वास करने के लिए तैयार रहेगा। बात यह है कि मानव प्रकृति में अडिग विश्वास ही सत्याग्रही के धर्म का सार है।चूंकि सत्याग्रह सीधी कार्रवाई का सबसे शक्तिशाली रूप है, इसलिए सत्याग्रही सत्याग्रह शुरू करने से पहले बाकी सब तरीकों पर अमल करके देख लेता है। तदनुसार वह पहले संबंधित प्राधिकारी से संपर्क करेगा और उसे जारी रखेगा, फिर जनमत का ध्यान आकर्षित करेगा, लोगों को संबंधित समस्या से अवगत कराएगा, जो उसकी बात सुनना चाहते हैं उनके समक्ष शांतिपूर्वक अपना पक्ष प्रस्तुत करेगा, और जब सभी उपाय चुक जाएंगे तब सत्याग्रह की शरण लेगा। लेकिन एक बार अंतर्वाणी का आदेश सुन लेने के बाद यदि वह सत्याग्रहश्शुरू कर देता है तो फिर किसी भी हालत में उससे पीछे नहीं हटेगा। सत्याग्रही यद्यपि हर समय संघर्ष के लिए तैयार रहता है, पर उसे शांति के लिए भी उतना ही उत्सुक रहना चाहिए। उसे शांति के किसी भी सम्मानजनक अवसर का स्वागत करना चाहिए।
सत्याग्रही की योग्यताएं मेरा विचार है कि भारत के प्रत्येक सत्याग्रही में... निम्नलिखित योग्यताएं होनी चाहिए: (1) उसे ईश्वर में जीती-जागती आस्था होनी चाहिए, क्योंकि वही तो उसका एक मात्र अवलंब है। (2) उसे सत्य और अहिंसा को अपना धर्म मानते हुए उनमें विश्वास रखना चाहिए और इसी कारण, उसे मानव-प्रकृति की अंतर्निहित अच्छाई में भी आस्था होनी चाहिए। उसे आशा रखनी चाहिए कि वह इसी अच्छाई को अपने पीड़ा-भोग के जरिए सत्य तथा प्रेम की अभिव्यक्ति करके जगाने में कामयाब होगा। (3) उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए और अपने ध्येय की पूर्ति के लिए अपने जीवन और अपनी संपत्ति को न्यौछावर करने के लिए तैयार तथा इच्छुक रहना चाहिए। (4) वह आदतन खादी धारण करने वाला तथा चरखा कातने वाला होना चाहिए। भारत के संदर्भ में यह आवश्यक है। (5) वह मद्यत्यागी और अन्य नशीले पदार्थ़ों के सेवन से मुक्त होना चाहिए ताकि उसका विवेक सदा जागृत रहे और चित्त स्थिर रहे। (6) वह समयगसमय पर निर्धारित अनुशासन के नियमों का स्वेच्छा से पालन करे। (7) उसे जेल के नियमों का पालन करना चाहिए, सिवा उन नियमों के जो उसके आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने के लिए विशेष रूप से बनाए गए हों। सत्याग्रही सम्मानजनक शर्त़ों पर समझौता करने का कोई अवसर नहीं खोता, नहीं खो सकता, लेकिन समझौता-वार्ता असफल हो जाने पर उसे संघर्ष के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। उसे पहले से कोई तैयारी करने की जरूरत नहीं है, उसकी कार्रवाई में किसी तरह की गोपनीयता नहीं होनी चाहिए।
सत्याग्रही का उद्देश्य अन्यायी पर जोर-जबर्दस्ती करना नहीं, बल्कि उसका हृदय-परिवर्तन करना है। उसे अपने समस्त व्यवहार में बनावटीपन से बचना चाहिए। वह सहज रूप से तथा अपने आंतरिक दृढ़ विश्वास के बल पर काम करता है।सत्याग्रह मूलतः सत्यनिष्ठ व्यक्ति का हथियार है। सत्याग्रही अहिंसा से प्रतिबद्ध होता है और जब तक लोग मनसा, वाचा, कर्मणा इसका पालन न करें, मैं सत्याग्रह नहीं कर सकता। सत्याग्रही भगवान पर भरोसा रखता हैजिन्हें सत्याग्रह के अतुल बल का थोडा-सा भी ज्ञान है, उन्हें अपने पडोसियों को कमजोरी तथा लाचारी के साथ नहीं बल्कि बहादुरी के साथ और जान-बूझकर दमन को बर्दाश्त करना सिखाना चाहिए... जब तक सत्याग्रह का इच्छुक व्यक्ति प्रशिक्षण के आवश्यक चरणों से नहीं गुजरेगा, जो बडा जानमारू काम है, तब तक वह प्रबल एवं सक्रिय अहिंसा का विकास नहीं कर सकता। जब तक दुर्भाव है तब तक सत्याग्रह की स्पष्ट विजय असंभव है। लेकिन जो अपने को दुर्बल समझते हैं, वे प्रेम करने में असमर्थ होते हैं। इसलिए हमारा पहला काम यह होना चाहिए कि प्रतिदिन प्रातःकाल यह संकल्प करेः 'मैं दुनिया में किसी से नहीं डरूंगा। मैं केवल ईश्वर से डरूंगा; मैं किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रखूंगा। मैं किसी का अन्याय सहन नहीं करूंगा। मैं असत्य पर सत्य से विजय प्राप्त करूंगा और असत्य का प्रतिकार करते हुए हर प्रकार की पीडा को भोगने के लिए तैयार रहूंगा।'
मेरी –ष्टि में सत्याग्रह दुनिया के सर्वाधिक सक्रिय बलों में से एक है। यह जीवन और प्रकाश तथा शांति एवं सुख का प्रसार करता है . एक सत्याग्रही भी अंत तक डटा रहे तो विजय निश्चित है।मारते हुए मरने वाले लाखों आदमियों के बलिदान के मुकाबले एक निर्दोष व्यक्ति का आत्मबलिदान लाखों गुना ज्यादा असर पैदा करता है।
मैं जानता हूं कि मैं निपट अकेला होऊं तो भी सत्याग्रह छेडने का मुझमें पर्याप्त सामर्थ्य है। मैंने पहले भी ऐसा किया है।सत्याग्रह ऐसा बल है जिसका प्रयोग व्यक्ति भी कर सकते हैं और समुदाय भी। इसका प्रयोग जितना अच्छी तरह राजनीतिक मामलों में किया जा सकता है, उतनी ही अच्छी तरह घरेलू मामलों में भी किया जा सकता है। इसकी सार्वभौम प्रयोज्यता इसके स्थायित्व और अपराजेयता का प्रमाण है। इसका प्रयोग पुरुष, स्त्राh, बच्चे सभी समान रूप से कर सकते हैं।
सत्याग्रह की सफलता के लिए आवश्यक शर्त़ें हैं : (1) सत्याग्रही के मन में विरोधी के लिए घृणा की भावना नहीं होनी चाहिए; (2) सत्याग्रह का मुद्दा सच्चा और महत्वपूर्ण होना चाहिए; (3) सत्याग्रही को अपने ध्येय की पूर्ति होने तक पीडा भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। सशस्त्र प्रतिरोध की अपेक्षा सत्याग्रह सदैव श्रेष्ठ है। इसे तर्क से नहीं बल्कि प्रदर्शन द्वारा ही ज्यादा अच्छी तरह सिद्ध किया जा सकता है। सत्याग्रह का शस्त्र बलशाली का आभूषण है। यह दुर्बल का आभूषण कभी नहीं हो सकता। दुर्बल से यहां आशय मन और प्राण की दुर्बलता से है, शरीर की दुर्बलता से नहीं ।
असहयोग असहयोग जनसाधारण में अपनी गरिमा और शक्ति की भावना जागृत करने का एक प्रयास है। यह तभी संभव है जब उन्हें यह ज्ञान कराया जाए कि यदि वे अपनी अंतरात्मा को पहचान सकें तो उन्हें पशुबल से डरने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी।
असहयोग बुराई में अनजाने और अनिच्छापूर्वक भागीदारी करने के विरुद्ध किया गया प्रतिवाद है... बुराई के साथ असहयोग करना उसी प्रकार मनुष्य का कर्तव्य है जिस प्रकार अच्छाई के साथ सहयोग करना। असहयोग कोई निक्रिय स्थिति नहीं है, यह अत्यंत सक्रिय स्थिति है । प्रतिरोध या हिंसा से अधिक सक्रिय। निक्रिय प्रतिरोध एक गलत संज्ञा है। असहयोग शब्द का प्रयोग मैंने जिस अर्थ में किया है, उसमें इसका अहिंसक होना आवश्यक है और इसीलिए यह न तो दंडात्मक है और न द्वेष, दुर्भावना अथवा घृणा पर आधारित है।
मैं साहसपूर्वक यह कहना चाहता हूं कि भगवद्गीता अंधकार और प्रकाश की शक्तियों के बीच असहयोग का सिद्धांत है। यदि इसकी शाब्दिक व्याख्या की जाए तो सदुद्देश्य का प्रतिनिधित्व करने वाले अर्जुन को अन्यायी कौरवों के साथ युद्ध करने के लिए आदेश दिया गया था। तुलसीदास ने संतों को परामर्श दिया है कि वे असंतों की संगति से बचें। अहिंसा का पालन इस बुनियादी सिद्धांत पर टिका है कि जो अपने विषय में सही है, वही समस्त विश्व के विषय में भी सही है। सभी मनुष्य मूलतः एक जैसे हैं। इसलिए जो मैं कर सकता हूं, उसे हर कोई कर सकता है...वस्तुतः अहिंसा की कसौटी ही यह है कि अहिंसक संघर्ष में, उसके उपरांत कोई विद्वेष बाकी न रहे और शत्रु मित्र बन जाएं। दक्षिण अफ्रीका में जनरल स्मट्स के साथ मेरा यही अनुभव रहा। शुरू में, वह मेरे कट्टर विरोधी और आलोचक थे। आज वह मेरे अन्यतम मित्र हैं... असहयोग यद्यपि सत्याग्रह के शस्त्रागार का मुख्य शस्त्र है, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सत्य और न्याय पर –ढ रहते हुए विरोधी का सहयोग प्राप्त करने का एक साधन मात्र है। अहिंसक विधि का सार यह है कि यह विरोध को समाप्त करने का प्रयास करता है, स्वयं विरोधियों को नहीं। अहिंसक संघर्ष में तुम्हें, कुछ हद तक, जिस व्यवस्था का तुम विरोध कर रहे हो, उसकी परंपरा और रूढियों को मानना पडता है। इसलिए विरोधी शक्ति के साथ किसी तरह का संबंध न रखना सत्याग्रही का ध्येय कभी नहीं हो सकता; उसका ध्येय तो उस संबंध का रूपांतरण अथवा शुद्धीकरण है। असहयोग जैसा शुद्ध, हानिरहित और फिर भी, कारगर साधन दूसरा नहीं है। विवेकपूर्वक इस्तेमाल करने पर इसके कोई दुष्परिणाम सामने नहीं आने चाहिए। और इसकी गहनता पूर्णतया लोगों की बलिदान करने की क्षमता पर निर्भर करेगी।
सत्याग्रही का उद्देश्य अन्यायी पर जोर-जबर्दस्ती करना नहीं, बल्कि उसका हृदय-परिवर्तन करना है। उसे अपने समस्त व्यवहार में बनावटीपन से बचना चाहिए। वह सहज रूप से तथा अपने आंतरिक दृढ़ विश्वास के बल पर काम करता है।सत्याग्रह मूलतः सत्यनिष्ठ व्यक्ति का हथियार है। सत्याग्रही अहिंसा से प्रतिबद्ध होता है और जब तक लोग मनसा, वाचा, कर्मणा इसका पालन न करें, मैं सत्याग्रह नहीं कर सकता। सत्याग्रही भगवान पर भरोसा रखता हैजिन्हें सत्याग्रह के अतुल बल का थोडा-सा भी ज्ञान है, उन्हें अपने पडोसियों को कमजोरी तथा लाचारी के साथ नहीं बल्कि बहादुरी के साथ और जान-बूझकर दमन को बर्दाश्त करना सिखाना चाहिए... जब तक सत्याग्रह का इच्छुक व्यक्ति प्रशिक्षण के आवश्यक चरणों से नहीं गुजरेगा, जो बडा जानमारू काम है, तब तक वह प्रबल एवं सक्रिय अहिंसा का विकास नहीं कर सकता। जब तक दुर्भाव है तब तक सत्याग्रह की स्पष्ट विजय असंभव है। लेकिन जो अपने को दुर्बल समझते हैं, वे प्रेम करने में असमर्थ होते हैं। इसलिए हमारा पहला काम यह होना चाहिए कि प्रतिदिन प्रातःकाल यह संकल्प करेः 'मैं दुनिया में किसी से नहीं डरूंगा। मैं केवल ईश्वर से डरूंगा; मैं किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रखूंगा। मैं किसी का अन्याय सहन नहीं करूंगा। मैं असत्य पर सत्य से विजय प्राप्त करूंगा और असत्य का प्रतिकार करते हुए हर प्रकार की पीडा को भोगने के लिए तैयार रहूंगा।'
मेरी –ष्टि में सत्याग्रह दुनिया के सर्वाधिक सक्रिय बलों में से एक है। यह जीवन और प्रकाश तथा शांति एवं सुख का प्रसार करता है . एक सत्याग्रही भी अंत तक डटा रहे तो विजय निश्चित है।मारते हुए मरने वाले लाखों आदमियों के बलिदान के मुकाबले एक निर्दोष व्यक्ति का आत्मबलिदान लाखों गुना ज्यादा असर पैदा करता है।
मैं जानता हूं कि मैं निपट अकेला होऊं तो भी सत्याग्रह छेडने का मुझमें पर्याप्त सामर्थ्य है। मैंने पहले भी ऐसा किया है।सत्याग्रह ऐसा बल है जिसका प्रयोग व्यक्ति भी कर सकते हैं और समुदाय भी। इसका प्रयोग जितना अच्छी तरह राजनीतिक मामलों में किया जा सकता है, उतनी ही अच्छी तरह घरेलू मामलों में भी किया जा सकता है। इसकी सार्वभौम प्रयोज्यता इसके स्थायित्व और अपराजेयता का प्रमाण है। इसका प्रयोग पुरुष, स्त्राh, बच्चे सभी समान रूप से कर सकते हैं।
सत्याग्रह की सफलता के लिए आवश्यक शर्त़ें हैं : (1) सत्याग्रही के मन में विरोधी के लिए घृणा की भावना नहीं होनी चाहिए; (2) सत्याग्रह का मुद्दा सच्चा और महत्वपूर्ण होना चाहिए; (3) सत्याग्रही को अपने ध्येय की पूर्ति होने तक पीडा भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। सशस्त्र प्रतिरोध की अपेक्षा सत्याग्रह सदैव श्रेष्ठ है। इसे तर्क से नहीं बल्कि प्रदर्शन द्वारा ही ज्यादा अच्छी तरह सिद्ध किया जा सकता है। सत्याग्रह का शस्त्र बलशाली का आभूषण है। यह दुर्बल का आभूषण कभी नहीं हो सकता। दुर्बल से यहां आशय मन और प्राण की दुर्बलता से है, शरीर की दुर्बलता से नहीं ।
असहयोग असहयोग जनसाधारण में अपनी गरिमा और शक्ति की भावना जागृत करने का एक प्रयास है। यह तभी संभव है जब उन्हें यह ज्ञान कराया जाए कि यदि वे अपनी अंतरात्मा को पहचान सकें तो उन्हें पशुबल से डरने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी।
असहयोग बुराई में अनजाने और अनिच्छापूर्वक भागीदारी करने के विरुद्ध किया गया प्रतिवाद है... बुराई के साथ असहयोग करना उसी प्रकार मनुष्य का कर्तव्य है जिस प्रकार अच्छाई के साथ सहयोग करना। असहयोग कोई निक्रिय स्थिति नहीं है, यह अत्यंत सक्रिय स्थिति है । प्रतिरोध या हिंसा से अधिक सक्रिय। निक्रिय प्रतिरोध एक गलत संज्ञा है। असहयोग शब्द का प्रयोग मैंने जिस अर्थ में किया है, उसमें इसका अहिंसक होना आवश्यक है और इसीलिए यह न तो दंडात्मक है और न द्वेष, दुर्भावना अथवा घृणा पर आधारित है।
मैं साहसपूर्वक यह कहना चाहता हूं कि भगवद्गीता अंधकार और प्रकाश की शक्तियों के बीच असहयोग का सिद्धांत है। यदि इसकी शाब्दिक व्याख्या की जाए तो सदुद्देश्य का प्रतिनिधित्व करने वाले अर्जुन को अन्यायी कौरवों के साथ युद्ध करने के लिए आदेश दिया गया था। तुलसीदास ने संतों को परामर्श दिया है कि वे असंतों की संगति से बचें। अहिंसा का पालन इस बुनियादी सिद्धांत पर टिका है कि जो अपने विषय में सही है, वही समस्त विश्व के विषय में भी सही है। सभी मनुष्य मूलतः एक जैसे हैं। इसलिए जो मैं कर सकता हूं, उसे हर कोई कर सकता है...वस्तुतः अहिंसा की कसौटी ही यह है कि अहिंसक संघर्ष में, उसके उपरांत कोई विद्वेष बाकी न रहे और शत्रु मित्र बन जाएं। दक्षिण अफ्रीका में जनरल स्मट्स के साथ मेरा यही अनुभव रहा। शुरू में, वह मेरे कट्टर विरोधी और आलोचक थे। आज वह मेरे अन्यतम मित्र हैं... असहयोग यद्यपि सत्याग्रह के शस्त्रागार का मुख्य शस्त्र है, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सत्य और न्याय पर –ढ रहते हुए विरोधी का सहयोग प्राप्त करने का एक साधन मात्र है। अहिंसक विधि का सार यह है कि यह विरोध को समाप्त करने का प्रयास करता है, स्वयं विरोधियों को नहीं। अहिंसक संघर्ष में तुम्हें, कुछ हद तक, जिस व्यवस्था का तुम विरोध कर रहे हो, उसकी परंपरा और रूढियों को मानना पडता है। इसलिए विरोधी शक्ति के साथ किसी तरह का संबंध न रखना सत्याग्रही का ध्येय कभी नहीं हो सकता; उसका ध्येय तो उस संबंध का रूपांतरण अथवा शुद्धीकरण है। असहयोग जैसा शुद्ध, हानिरहित और फिर भी, कारगर साधन दूसरा नहीं है। विवेकपूर्वक इस्तेमाल करने पर इसके कोई दुष्परिणाम सामने नहीं आने चाहिए। और इसकी गहनता पूर्णतया लोगों की बलिदान करने की क्षमता पर निर्भर करेगी।
कभी-कभी असहयोग भी उसी प्रकार एक कर्तव्य बन जाता है जिस प्रकार कि सहयोग है। कोई व्यक्ति अपने ही सर्वनाश अथवा दासता में सहयोग देने के लिए बाध्य नहीं है। . मेरी निश्चित धारणा है कि जो बात अहिंसक असहयोग से अनाचारी का अंततः हृदय-परिवर्तन करके हासिल की जा सकती है, वही हिंसा से कभी नहीं की जा सकती। मैंने असहयोग को धार्मिक रूप में प्रस्तुत किया है, चूंकि मैं राजनीति में उसी सीमा तक प्रविष्ट होता हूं जहां तक वह मेरी धार्मिक शक्ति का विकास करती है।मेरे असहयोग के मूल में घृणा नहीं, प्रेम होता है। मेरा व्यक्तिगत धर्म मुझे किसी से भी घृणा करने की इजाजत नहीं देता। मैंने यह सरल किंतु महान सिद्धांत बारह वर्ष की आयु में स्कूल की एक किताब से सीखा . यह मेरे जीवन का एक तीव्र मनोवेग है। कुछ लोगों ने मुझे अपने समय का सबसे बडा क्रांतिकारी बताया है। यह चाहे गलत हो, पर मैं स्वयं को एक क्रांतिकारी, एक अहिंसक क्रांतिकारी अवश्य मानता हूं।
सत्याग्रह के शस्त्रागार में उपवास एक बडा शक्तिशाली शस्त्र है। इसका प्रयोग हर कोई नहीं कर सकता।उपवास करने की शारीरिक क्षमता से ही उसकी पात्रता निर्धारित नहीं की जा सकती। ईश्वर में जागृत आस्था के बिना इसका कोई उपयोग नहीं है। यह एक यांत्रिक प्रयास अथवा मात्र अनुकरण के रूप में कभी नहीं किया जाना चाहिए। उपवास की प्रेरणा व्यक्ति की आत्मा की गहराई से आनी चाहिए। इसलिए उपवास सदा एक विरल घटना होती है।आमरण उपवास सत्याग्रह के शस्त्रागार का अंतिम एवं सबसे शक्तिशाली शस्त्र है। यह एक पवित्र शस्त्र है। इसे इसके संपूर्ण निहितार्थ के साथ स्वीकार करना चाहिए। महत्वपूर्ण स्वयं उपवास नहीं है, बल्कि उसका निहितार्थ है। यह एक शक्तिशाली चीज है, पर अनाडीपन के साथ करने पर यह खतरनाक साबित हो सकता है। इसके लिए पूर्ण आत्म-शुद्धीकरण की आवश्यकता होती है, उससे भी कहीं ज्यादा आत्मशुद्धीकरण की जो केवल मन में ही प्रतिकार की भावना लेकर मौत का सामना करने के लिए चाहिए। पूर्ण बलिदान का एक ही ऐसा कृत्य समूची दुनिया के लिए काफी होगा। ईसा का उदाहरण इसी कोटि में आता है।यदि कोई व्यक्ति, चाहे वह कितना ही जनप्रिय तथा महान हो, किसी अनुचित मुद्दे को उठाता है और उस अनौचित्य की रक्षा के लिए उपवास करता है तो यह उसके मित्रों, सहयोगियों और संबंधियों (जिनमें मैं अपनी गिनती भी करता हूं) का कर्तव्य है कि उसकी प्राणरक्षा के लिए अनुचित मुद्दे को मनवाने की अपेक्षा उसे मर जाने दें। उद्देश्य अनुचित हो तो शुद्ध-से-शुद्ध साधन भी अशुद्ध बन जाते हैं।
सत्याग्रह के शस्त्रागार में उपवास एक बडा शक्तिशाली शस्त्र है। इसका प्रयोग हर कोई नहीं कर सकता।उपवास करने की शारीरिक क्षमता से ही उसकी पात्रता निर्धारित नहीं की जा सकती। ईश्वर में जागृत आस्था के बिना इसका कोई उपयोग नहीं है। यह एक यांत्रिक प्रयास अथवा मात्र अनुकरण के रूप में कभी नहीं किया जाना चाहिए। उपवास की प्रेरणा व्यक्ति की आत्मा की गहराई से आनी चाहिए। इसलिए उपवास सदा एक विरल घटना होती है।आमरण उपवास सत्याग्रह के शस्त्रागार का अंतिम एवं सबसे शक्तिशाली शस्त्र है। यह एक पवित्र शस्त्र है। इसे इसके संपूर्ण निहितार्थ के साथ स्वीकार करना चाहिए। महत्वपूर्ण स्वयं उपवास नहीं है, बल्कि उसका निहितार्थ है। यह एक शक्तिशाली चीज है, पर अनाडीपन के साथ करने पर यह खतरनाक साबित हो सकता है। इसके लिए पूर्ण आत्म-शुद्धीकरण की आवश्यकता होती है, उससे भी कहीं ज्यादा आत्मशुद्धीकरण की जो केवल मन में ही प्रतिकार की भावना लेकर मौत का सामना करने के लिए चाहिए। पूर्ण बलिदान का एक ही ऐसा कृत्य समूची दुनिया के लिए काफी होगा। ईसा का उदाहरण इसी कोटि में आता है।यदि कोई व्यक्ति, चाहे वह कितना ही जनप्रिय तथा महान हो, किसी अनुचित मुद्दे को उठाता है और उस अनौचित्य की रक्षा के लिए उपवास करता है तो यह उसके मित्रों, सहयोगियों और संबंधियों (जिनमें मैं अपनी गिनती भी करता हूं) का कर्तव्य है कि उसकी प्राणरक्षा के लिए अनुचित मुद्दे को मनवाने की अपेक्षा उसे मर जाने दें। उद्देश्य अनुचित हो तो शुद्ध-से-शुद्ध साधन भी अशुद्ध बन जाते हैं।
--( स्रोत ; हरिजन और यंग इंडिया पत्रिकाओं में गाँधी जी द्वारा लिखे लेखों से तद्वत उद्धरित .)
Friday, October 30, 2009
११ - स्पर्श - भावना
Untouchability means pollution by the touch of certain persons in reason of their birth in a particular sfamily। It is an ugly excrescence in INDIAN society and culture . In the guise of religion, it is always in the way, and erupts religion. Removal of untouchability means love for, and service of, the whole world and humanity at large ,thus merges into Ahimsa। Removal of untouchability spells the breaking down of barriers between man and man and between the various orders of Being. '' consider untouchability to be a heinous crime against humanity। It is not a sign of self-restraint, but an arrogant assumption of superiority. '' - Young India, Dec. 8, १९२०
भारतीय वर्ण ब्यवस्था जो की पहले कर्मणा थी , कालांतर में जन्मना हो चली और उसमे छुआछूत का एक भयंकर दोष आ गया । वर्ण तो सदा सर्वदा रहेंगे परन्तु छुआछूत का रोग मूर्खतापूर्ण और विवेकहीनता का परिचायक था । इसे समूल नष्ट करना अति आवश्यक था , अतः गाँधी जी ने इस भावना को नष्ट करने हेतु इसे अपने एकादश व्रतों में रख कर इस कार्य में मत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
किसी परिवार , धर्म , समूह अथवा राज्य देश या कुल में पैदा होने से मनुष्य / ब्यक्ति बड़ा छोटा , छूत अछूत नही हो सकता । गाँधी जी ने ऐसे लोगों को हरिजन / ईश्वर भक्त और हमारी सेवा का सर्वोत्तम केन्द्र बताया । इनकी सेवा , शिक्षा , उन्नति और सम्मान के अवसरों की समानता के लिए गाँधी जी ने जीवन भर संघर्ष किया और सफलता भी पाई । इसके लिए जहाँ एक तरफ़ हरिजनों में चेतना पैदा की वहीँ अन्य वर्णों ने खुलकर इस कार्य में सहयोग और भागीदारी की । भारत में छुआछूत करीब समाप्त प्रायः हो चला है और इस प्रकार की संकीर्ण भावना का लगभग अंत हो चला है । ज्यों ज्यों शिक्षा बढ़ रही है लोग इसे नकारने की स्थिति में आ गए हैं । गाँधी जी द्वारा समाज में की गई यह एक महान और सफल क्रांति थी जो स्वर्णाक्षरों में लिखी रहेगी ।
गाँधी जी ने इन सभी एकादश व्रतों का पालन - विनम्र व्रत निष्ठां से करने का नियम आश्रम वालों के लिए बनाया था और प्रति दिन सायंकालीन प्रार्थना के अंत में इस प्रकार दुहराया जाता था । -
'' अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य , असंग्रह , शरीरश्रम , अस्वाद , सर्वत्र भय - वर्जन , सर्व -धर्म - समानत्व , स्वदेशी , स्पर्श -भावना ; विनम्र व्रत निष्ठां से ऐ एकादश सेव्य हैं ''
Thursday, October 29, 2009
१० - स्वदेशी
स्वदेशी का अर्थ अधिक से अधिक स्वावलंबी बनना है । जैसे हमको अधिक से अधिक अपने ब्य्कतिगत मामलों में अपने ऊपर ही निर्भर होना है ऐसे ही ब्यक्ति से ऊपर उठने पर परिवार को भी आत्मनिर्भर बनाना चाहिए । परिवार के ऊपर फ़िर हमें अपने ग्राम को भी आत्मनिर्भर बनाना है । जो ख़ुद से हो दूसरे से मदद नही लेना ; जो परिवार से काम चल जाय उसके लिए ग्राम से मदद नही लेना ; जो पड़ोस में मिले उसे दूर देश से नही लेना और यही भाव स्वदेशी का भी है अर्थात अपने देश को अधिक से अधिक आत्मनिर्भर बनाना । देश सामजिक , आर्थिक , शैक्षिक , राजनैतिक और सुरक्षा के मामलों में आत्म निर्भर हो यही स्वदेशी का तात्पर्य है ।
स्वदेशी का विचार किसी भी प्रकार से दुनिया से नाता नही तोड़ना है । अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध बने रहने चाहिए और संपन्न राष्ट्रों को गरीब और पिछड़े राष्ट्रों की मदद करनी चाहिए तथा सम्पूर्ण विश्व में शान्ति , सद्भाव , मित्रता , वैज्ञानिक शोधों और विकास कार्यों में सभी राष्ट्रों की सहभागिता और सहयोग होना आवश्यक है । सभी राष्ट्रों में बिना किसी रंग भेद ; गरीब -अमीर ; अगडे -पिछडे का विचार किए बिना समानता के आधार पर मित्रता और शान्ति -सहयोग स्थापित होना चाहिए । इनसब कामों के लिए एक शक्तिशाली अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना होनी चाहिए ।
सारे विकास और उन्नति का केन्द्र यद्यपि ब्यक्ति ही है परन्तु ब्यक्ति को परिवार के लिए , परिवार को ग्राम के लिए , ग्राम को जनपद के लिए , जनपद को राज्य के लिए , राज्य को देश के लिए और देश को दुनिया /विश्व मानव जाति के लिए अपने अपने हितों का त्याग करने को तैयार रहना चाहिए । परन्तु यह बात ध्यान में हमेशा होनी चाहिए कि यह सब कुछ साधन ही है , साध्य तो मनुष्य / ब्यक्ति का विकास और उसकी चरम उन्नति ही है । यही स्वदेशी का मूल मन्त्र है ।
स्वदेशी का विचार किसी भी प्रकार से दुनिया से नाता नही तोड़ना है । अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध बने रहने चाहिए और संपन्न राष्ट्रों को गरीब और पिछड़े राष्ट्रों की मदद करनी चाहिए तथा सम्पूर्ण विश्व में शान्ति , सद्भाव , मित्रता , वैज्ञानिक शोधों और विकास कार्यों में सभी राष्ट्रों की सहभागिता और सहयोग होना आवश्यक है । सभी राष्ट्रों में बिना किसी रंग भेद ; गरीब -अमीर ; अगडे -पिछडे का विचार किए बिना समानता के आधार पर मित्रता और शान्ति -सहयोग स्थापित होना चाहिए । इनसब कामों के लिए एक शक्तिशाली अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना होनी चाहिए ।
सारे विकास और उन्नति का केन्द्र यद्यपि ब्यक्ति ही है परन्तु ब्यक्ति को परिवार के लिए , परिवार को ग्राम के लिए , ग्राम को जनपद के लिए , जनपद को राज्य के लिए , राज्य को देश के लिए और देश को दुनिया /विश्व मानव जाति के लिए अपने अपने हितों का त्याग करने को तैयार रहना चाहिए । परन्तु यह बात ध्यान में हमेशा होनी चाहिए कि यह सब कुछ साधन ही है , साध्य तो मनुष्य / ब्यक्ति का विकास और उसकी चरम उन्नति ही है । यही स्वदेशी का मूल मन्त्र है ।
Wednesday, October 28, 2009
९ - सर्व धर्म समभाव
''# I believe that there is no such thing as conversion from one faith to another in the accepted sense of the word। It is a highly personal matter for the individual and his God. I may not have any design upon my neighbour as to his faith, which I must honour even as I honour my own. Having reverently studied the scriptures of the world I could no more think of asking a Christian or a Musalman, or a Parsi or a Jew to change his faith than I would think of changing my own." (Harijan: September 9, 1935) "I came to the conclusion long ago … that all religions were true and also that all had some error in them, and whilst I hold by my own, I should hold others as dear as Hinduism। So we can only pray, if we are Hindus, not that a Christian should become a Hindu … But our innermost prayer should be a Hindu should be a better Hindu, a Muslim a better Muslim, a Christian a better Christian।" (Young India: January 19, 1928)
ऊपर का उद्धरण इस प्रकार है - धर्म परिवर्तन उचित नही है । यह ब्य्कतिगत मामला है आदमी और इश्वर के सम्बन्ध का । हमें अपने पडोसी के धर्म का उसी प्रकार आदर करना चाहिए जैसे हम अपने धर्म / विश्वास का आदर करते हैं । आदर के साथ दुनिया के सभी धर्मों का अध्ययन करने के बाद मै इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि जैसे मै अपने धर्म में परिवर्तन नही चाहता उसी तरह किसी ईसाई , पारसी , यहूदी और मुसलमान को उसका धर्म बदलने को न कहूँ , न राय दूँ अथवा न चाहूं । सभी धर्मों में कुछ कमी हो सकती है या है ; परन्तु जैसे मै अपने धर्म में पक्का हूँ वैसे ही सभी धर्म के लोग अपने में पक्के बने रहें । यही मेरे अनुसार धर्म के समझ का सार है ।
मै चाहता हूँ कि सभी धर्म के लोग यही प्रार्थना करें कि यदि वे हिंदू हैं तो और अच्छे हिंदू बन सकें ; अगर मुस्लमान हैं तो और बेहतर / अच्छे मुस्लमान बनें और इसी तरह और बेहतर / अच्छे ईसाई , पारसी आदि आदि बनें ।
सभी धर्मों में वही कहा गया है जो मनुष्य के हित में हो और जिससे हम प्रेम , करुणा , अहिंसा , भाईचारा , एकता विश्वबंधुत्व और विश्व शान्ति की स्थापना कर सकें । जो अपने धर्म को ठीक से समझ लेता है वह निश्चित ही दूसरे धर्मों का आदर करेगा । '' जब हम अच्छा करते हैं तो हमें अच्छा अनुभव होता है और जब हम कुछ बुरा करते हैं तो हमें बुरा अनुभव होता है ; यही मेरा धर्म है '' - अब्राहम लिंकन । और - '' जब हम अच्छाई और सच्चाई के साथ अपनी आत्मा के साथ जीवन बिताते होते हैं तो वही हमारा धर्म होता है '' - एलबर्ट आइन्स्टीन ।
ऊपर का उद्धरण इस प्रकार है - धर्म परिवर्तन उचित नही है । यह ब्य्कतिगत मामला है आदमी और इश्वर के सम्बन्ध का । हमें अपने पडोसी के धर्म का उसी प्रकार आदर करना चाहिए जैसे हम अपने धर्म / विश्वास का आदर करते हैं । आदर के साथ दुनिया के सभी धर्मों का अध्ययन करने के बाद मै इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि जैसे मै अपने धर्म में परिवर्तन नही चाहता उसी तरह किसी ईसाई , पारसी , यहूदी और मुसलमान को उसका धर्म बदलने को न कहूँ , न राय दूँ अथवा न चाहूं । सभी धर्मों में कुछ कमी हो सकती है या है ; परन्तु जैसे मै अपने धर्म में पक्का हूँ वैसे ही सभी धर्म के लोग अपने में पक्के बने रहें । यही मेरे अनुसार धर्म के समझ का सार है ।
मै चाहता हूँ कि सभी धर्म के लोग यही प्रार्थना करें कि यदि वे हिंदू हैं तो और अच्छे हिंदू बन सकें ; अगर मुस्लमान हैं तो और बेहतर / अच्छे मुस्लमान बनें और इसी तरह और बेहतर / अच्छे ईसाई , पारसी आदि आदि बनें ।
सभी धर्मों में वही कहा गया है जो मनुष्य के हित में हो और जिससे हम प्रेम , करुणा , अहिंसा , भाईचारा , एकता विश्वबंधुत्व और विश्व शान्ति की स्थापना कर सकें । जो अपने धर्म को ठीक से समझ लेता है वह निश्चित ही दूसरे धर्मों का आदर करेगा । '' जब हम अच्छा करते हैं तो हमें अच्छा अनुभव होता है और जब हम कुछ बुरा करते हैं तो हमें बुरा अनुभव होता है ; यही मेरा धर्म है '' - अब्राहम लिंकन । और - '' जब हम अच्छाई और सच्चाई के साथ अपनी आत्मा के साथ जीवन बिताते होते हैं तो वही हमारा धर्म होता है '' - एलबर्ट आइन्स्टीन ।
Tuesday, October 27, 2009
८ - अभय
अभय से तात्पर्य है सभी प्रकार के भय से मुक्ति , मृत्यु से , शारीरिक रोग ,चोट से , भूख से ,अपमान से , लोकनिंदा और अपयश से , बुरी आत्माओं और भूत से और किसी भी के क्रोध और धमकी से तथा किसी प्रकार के अन्याय के प्रतिकार और विरोध करने से । अभय , अज्ञानता औरआक्रामकता में भी नही है ; यह तो भय का प्रदर्शन ही है । अभय मानसिक शान्ति और संतुष्ट मन -विचार की सम्यक अवस्था है .
इस प्रकार की अभय अवस्था उसे ही प्राप्त हो सकती है जिसको परमेश्वर की गहन अनुभूति और उसमे अविचल श्रद्घा हो । उपनिषदों में वर्णित अभय परम कर्ता की अपने में सहज अनुभूति और सत्य की समर्थता में अटल विश्वास है जो कभी डिगता नही । केवल ईश्वर को ही डरने की आवश्यकता है और जो ईश्वर को डरता है उसे और किसी को भी डरने या डराने की जरूरत नही होती । जो ईश्वर के साक्षित्व में अपना जीवन ब्यातीत करता है उसे डरने का कोई अवसर ही नही आता । हर समय जो ईश्वर को साथ लिए रहता है , जो की सत्य ही है कि वह हमारे भीतर ही मौजूद है, तो उसे डरने कि जरूरत नही होती ।
वस्तुतः किसी भी प्रकार की हिंसा अथवा हिंसा की विचारधारा के मूल में भय ही होता है और यह भय कायरता का रूप धारण कर लेता है । हिंसा , हिंसा का विचार और सुरक्षा का भय ऐ सभी तत्व मनुष्य को अस्त्र- शास्त्र रखने और उसका प्रयोग करने को उत्प्रेरित करते हैं । एक देश को दूसरे देश का भय ; एक समूह को दूसरे समूह का भय और एक ब्यक्ति को दूसरे ब्यक्ति का भय , उनमे असुरक्षा का भाव पैदा करता है . हिंसा की जड़ में भय , कायरता और कमजोरी ही है जो असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होकर हिंसा पर उतारू हो जाती है , गाँधी जी कहते हैं जो अस्त्र -शस्त्र लेकर सुरक्षा घेरे में चलते हैं या हिंसा करते और उसके विषय में सोचते हैं वे सभी कायर और बुजदिल लोग ही हैं । हमारे उपनिषद और आधुनिक मनोविज्ञान इसकी पुष्टि करते हैं । हिंसा और हिंसा करने वाले कायरों की कभी जीत नही होती । इतिहास इस बात का गवाह है । क्रूरतम हिंसक अंगुलीमाल महान अहिंसक तथागत बुद्ध से पराजित हो गया था और उनका शिष्य भी बन गया । स्वयं सभी बड़े बड़े तथाकथित योद्धा और हिंसा करने वालों ने अंत में प्रेम और करुणा को चरम ताकत बताया है । योगी पतंजलि ने भी अहिंसा को ही विजय का परम साधन कहा है - '' हिंसा तन्निरोधे वैर त्यागः '' (योग-सूत्र )
सत्य, अहिंसा आदि व्रतों का पालन निर्भयता के बिना असंभव है। और हाल में जहाँ सर्वत्र भय व्याप रहा है, वहाँ निर्भयता का चिन्तन और उसकी शिक्षा अत्यन्त आवश्यक होने से, उसे व्रतों में स्थान दिया गया है। जो सत्यपरायण रहना चाहता है, वह न जाति से, बिरादरी से, न सरकार से, न चोर से, न गरीबी से और न मौतसे डरता है।Monday, October 26, 2009
७ - अस्वाद
मनुष्य को स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर ही भोजन करना चाहिए न कि स्वाद अथवा मन के सुख के लिए । गाँधी जी एक लोकप्रिय कहावत का उदहारण देते हुए गाँधी जी कहते है कि भोजन जीने के लिए करना चाहिए न कि भोजन के लिए जीना चाहिए । अस्वाद दूसरी और ब्रह्मचर्य और सयंमित जीवन बिताने में भी उपयोगी होगा । भोजन सादा और सुपाच्य तथा स्वास्थ्य वर्धक हो । भोजन के बीच बीच में उपवास - व्रत भी करना चाहिए जिससे रोगों से बचा जा सके । शरीर धर्म की साधना और अपना कर्तब्य करने के लिए आवश्यक है अतः उसकी रक्षा अच्छे सुपाच्य भोजन और नियमित जीवन से ही की जा सकती है । उपवास और व्रत से मन और शरीर दोनों शुद्ध होते हैं ।
अस्वाद को ब्यापक रूप में लेते हुए गाँधी जी सभी इन्द्रियों पर संयम रखने की सलाह देते हैं जिसके अर्न्तगत बुरी बातों को न सुनना , न बोलना , न छूना , न देखना और न सोचना तथा न करना शामिल है । मन से लालच का त्याग कराने से ही भौतिक शारीरिक अंगो से भी उनका त्याग किया जाना संभव हो सकेगा । '' भोग तो छूट जाते हैं निराहारी मनुष्य के ; रस किंतु नही जाता , जाता है , आत्म लाभ से '' गीता में श्री कृष्ण । (श्लोक का हिन्दी अनुवाद ) इन्द्रियों को विषयों से हटने के लिए या हटाने के लिए हमें अपने मन पर संयम करना होगा क्योंकि जब तक किसी विचार ,विषय या ब्यक्ति के प्रति मन का लगाव रहेगा तबतक अस्वाद की प्राप्ति असंभव है । इसके लिए योग सूत्र में महर्षि पतंजलि ने अनवरत अनचाहे से वैराग्य और चाहे का अभ्यास करने की बात कही है । '' करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान । ''
अस्वाद ब्यक्ति के आत्मनियंत्रण को बढाकर उसे उन्नत करता है जिससे वह अपने उत्तरदाइत्यों का सम्यक निर्वाह कर सके । उन्नत ब्यक्ति ही उन्नत समाज का निर्माता होसकता है ।
स्वाद वस्तुतः लालच का पर्याय है , अतः स्वाद के नियंत्रण से ही लालच को नियंत्रित किया जा सकता है । लालच सभी प्रकार की बुराइयों ओर पाप - कर्मों की जड़ है ।
अस्वाद को ब्यापक रूप में लेते हुए गाँधी जी सभी इन्द्रियों पर संयम रखने की सलाह देते हैं जिसके अर्न्तगत बुरी बातों को न सुनना , न बोलना , न छूना , न देखना और न सोचना तथा न करना शामिल है । मन से लालच का त्याग कराने से ही भौतिक शारीरिक अंगो से भी उनका त्याग किया जाना संभव हो सकेगा । '' भोग तो छूट जाते हैं निराहारी मनुष्य के ; रस किंतु नही जाता , जाता है , आत्म लाभ से '' गीता में श्री कृष्ण । (श्लोक का हिन्दी अनुवाद ) इन्द्रियों को विषयों से हटने के लिए या हटाने के लिए हमें अपने मन पर संयम करना होगा क्योंकि जब तक किसी विचार ,विषय या ब्यक्ति के प्रति मन का लगाव रहेगा तबतक अस्वाद की प्राप्ति असंभव है । इसके लिए योग सूत्र में महर्षि पतंजलि ने अनवरत अनचाहे से वैराग्य और चाहे का अभ्यास करने की बात कही है । '' करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान । ''
अस्वाद ब्यक्ति के आत्मनियंत्रण को बढाकर उसे उन्नत करता है जिससे वह अपने उत्तरदाइत्यों का सम्यक निर्वाह कर सके । उन्नत ब्यक्ति ही उन्नत समाज का निर्माता होसकता है ।
स्वाद वस्तुतः लालच का पर्याय है , अतः स्वाद के नियंत्रण से ही लालच को नियंत्रित किया जा सकता है । लालच सभी प्रकार की बुराइयों ओर पाप - कर्मों की जड़ है ।
६ - शरीर श्रम
शरीर श्रम सामाजिक ब्यवस्था में समायोजन और समन्वय लाने के लिए प्रत्येक ब्यक्ति के लिए अनिवार्य होना चाहिए । श्रम करने सम्बन्धी विचार गाँधी को रस्किन और टालसटाय के विचारों से अनुभव में आया । बौद्धिक श्रम के साथ साथ आदमी को शारीरिक श्रम करना चाहिए और कम से कम इतना कि वह अपना पेट भरने की ब्यवस्था कर सके । बौद्धिक श्रम का मूल्य शारीरिक श्रम से अधिक नही होना चाहिए और गाँधी जी तो यहाँ तक कहते हैं कि बौद्धिक सम्पदा को दूसरों के लिए मुफ्त में दान स्वरूप देनी चाहिए । जो बिना शारीरिक श्रम किए खाता है वह चोरी का अन्न खाता है और दूसरे का शोषण करता है । यदि सभी लोग शारीरिक श्रम करे तो किसी को खाने कि कमी नही होगी और न तो किसी का शोषण ही होगा ।
सभी कार्य चाहे वे छोटे हों अथवा बड़े , सभी बराबर महत्व के और सम्मानित कार्य हैं । नाई का काम और इंजिनिअर या डाक्टर का काम एक समान हैं और किसी को कोई भी काम करने के लिए तैयार होना चाहिए । शारीरिक श्रम हमें काफी-कुछ स्वावलंबी बनाता है ।
हर ब्यक्ति को कोई न कोई ऐसा काम करना चाहिए जो उत्पादक हो । यदि कोई किसी प्रकार का उत्पादक श्रम नही करता तो वह समाज का और दूसरे श्रम करने वाले का शोषण करता है । हर ब्यक्ति को कम से कम अपने जीवन सम्बन्धी ब्य्कतिगत काम जैसे अपने कमरे , कपडे आदि को ब्यवस्थित और साफ रखने में किसी दूसरे की सेवा नही लेनी चाहिए । वैसे कम से कम आदेश देना और कम से कम सेवा लेना उच्च ब्यक्तित्व का सूचक है । इस प्रकार का जीवन स्वावलंबन और स्वतंत्रता का उत्तम आदर्श है ।
सादगी , स्वावलंबन और शारीरिक श्रम , पूर्व में कहे गए , अस्तेय और अपरिग्रह व्रतों की आधारशिला है । शारीरिक श्रम , अचौर्य / अस्तेय और असंग्रह / अपरिग्रह साधने में महत्वपूर्ण साधन का कार्य करता है । गाँधी जी अपने आश्रम में इन सभी व्रतों का स्वयं पालन करते थे और सभी आश्रम वासियों को पालन करने को उत्साहित करते थे ।
सभी कार्य चाहे वे छोटे हों अथवा बड़े , सभी बराबर महत्व के और सम्मानित कार्य हैं । नाई का काम और इंजिनिअर या डाक्टर का काम एक समान हैं और किसी को कोई भी काम करने के लिए तैयार होना चाहिए । शारीरिक श्रम हमें काफी-कुछ स्वावलंबी बनाता है ।
हर ब्यक्ति को कोई न कोई ऐसा काम करना चाहिए जो उत्पादक हो । यदि कोई किसी प्रकार का उत्पादक श्रम नही करता तो वह समाज का और दूसरे श्रम करने वाले का शोषण करता है । हर ब्यक्ति को कम से कम अपने जीवन सम्बन्धी ब्य्कतिगत काम जैसे अपने कमरे , कपडे आदि को ब्यवस्थित और साफ रखने में किसी दूसरे की सेवा नही लेनी चाहिए । वैसे कम से कम आदेश देना और कम से कम सेवा लेना उच्च ब्यक्तित्व का सूचक है । इस प्रकार का जीवन स्वावलंबन और स्वतंत्रता का उत्तम आदर्श है ।
सादगी , स्वावलंबन और शारीरिक श्रम , पूर्व में कहे गए , अस्तेय और अपरिग्रह व्रतों की आधारशिला है । शारीरिक श्रम , अचौर्य / अस्तेय और असंग्रह / अपरिग्रह साधने में महत्वपूर्ण साधन का कार्य करता है । गाँधी जी अपने आश्रम में इन सभी व्रतों का स्वयं पालन करते थे और सभी आश्रम वासियों को पालन करने को उत्साहित करते थे ।
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