Friday, October 23, 2009
५ - असंग्रह
असंग्रह या अपरिग्रह आवश्यकता से अधिक धन ,संपत्ति , जीवन -सुबिधाओं का निषेध है , इस व्रत का विधायक स्वरुप त्याग है । सम्पूर्ण त्याग तो संभव नही है अतः जितनी अनिवार्य आवश्यकता हो , जीवन की दक्षता और शारीरिक क्षमता को बनाये रखने के लिए , उतने का ही प्रयोग और संग्रह अपेक्षित है । अपनी क्षमता के अनुसार दूसरे ब्यक्ति और शेष समाज के लिए त्याग करना ही अपरिग्रह की आत्मा है ।( कृपया , सिबि , दधीचि, बलि , कर्ण और बिलगेट्स के जीवन -दृष्टान्त का अवलोकन करें ) उल्टे आवश्यकता से अधिक संग्रह करना , जमाखोरी , अब्य्व्स्था और सामजिक दुराचार की जननी है ।
मनुष्य को पृथ्वी पर वह सब उपलब्ध हो सकता है जिसकी उसे आवश्यकता है परन्तु यदि उसे लालच है तो उसकी पूर्ति तो तीन लोक भी नही कर सकते ।
हर ब्यक्ति को अपनी आवश्यकता से अधिक रखना अर्थात संग्रह करना मनुष्य की मूल- प्रवृत्ति है परन्तु यह संग्रह एक निश्चित अनुपात में होना चाहिए और शेष ,अतिरिक्त को दूसरे ब्यक्ति को जिसे उसकी आवश्यकता हो दान कर देना चाहिए अथवा राज्य / समाज को लौटा देना चाहिए । अपनी कमाई हुई संपत्ति , ज्ञान , बल , बुद्धि आदि का आधिक्य के कारण दूसरे के लिए त्याग करना ही असंग्रह है । यदिहम अपरिग्रह का पालन करें तो समाज में किसी को किसी बस्तु की कमी न रहे और पूँजीबादी ब्यवस्था तथा शोषण का अंत हो जाय । इसके लिए संघर्ष नही अपितु मनुष्य के विचारों में परिवर्तन लाना होगा जो कठिन तो है परन्तु असंभव नही है । करना तो यही होगा क्योंकि यही अहिंसा का सुविचारित मार्ग है । बस्तुतः मनुष्य की नैतिक उन्नति ही सामाजिक ब्यवस्था की उन्नत अवस्था है । समाज को उन्नत करने के लिए ब्यक्ति को ही उन्नत करना होगा । ब्यक्ति ईकाई है और समाज ब्यक्तियों का समूह ।
संग्रह की जड़ में लालच है और है ,असुरक्षा का भाव , जिसे शिक्षा द्वारा दूर करना होगा । लालच के लिए संतोष और असुरक्षा के लिए ईश्वर / नियति / प्रकृतिपर भरोसा लाना होगा । मनुष्य का नैतिक उत्थान और सामाजिक सहयोग का भाव ही असंग्रह प्रवृत्ति का सहज संधान है । मनुष्य को सीखना होगा कि त्याग का जीवन कितना सुखी और आनंदमय होता है । भारतीय अर्थ - शास्त्री प्रो ० जे ० के० मेहता के '' थियरी आफ वांटलेसनेस '' को जीवन में अपनाना होगा ।
'' बिन संतोष न काम नसाहीं । काम अछत सुख सपनेहु नाही ॥
और,
'' कोऊ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिन । जल बिनु चलै कि नाव कोटि जतन पचि-पचि मरिय ॥ ''
(रामचरित मानस )
मनुष्य को पृथ्वी पर वह सब उपलब्ध हो सकता है जिसकी उसे आवश्यकता है परन्तु यदि उसे लालच है तो उसकी पूर्ति तो तीन लोक भी नही कर सकते ।
हर ब्यक्ति को अपनी आवश्यकता से अधिक रखना अर्थात संग्रह करना मनुष्य की मूल- प्रवृत्ति है परन्तु यह संग्रह एक निश्चित अनुपात में होना चाहिए और शेष ,अतिरिक्त को दूसरे ब्यक्ति को जिसे उसकी आवश्यकता हो दान कर देना चाहिए अथवा राज्य / समाज को लौटा देना चाहिए । अपनी कमाई हुई संपत्ति , ज्ञान , बल , बुद्धि आदि का आधिक्य के कारण दूसरे के लिए त्याग करना ही असंग्रह है । यदिहम अपरिग्रह का पालन करें तो समाज में किसी को किसी बस्तु की कमी न रहे और पूँजीबादी ब्यवस्था तथा शोषण का अंत हो जाय । इसके लिए संघर्ष नही अपितु मनुष्य के विचारों में परिवर्तन लाना होगा जो कठिन तो है परन्तु असंभव नही है । करना तो यही होगा क्योंकि यही अहिंसा का सुविचारित मार्ग है । बस्तुतः मनुष्य की नैतिक उन्नति ही सामाजिक ब्यवस्था की उन्नत अवस्था है । समाज को उन्नत करने के लिए ब्यक्ति को ही उन्नत करना होगा । ब्यक्ति ईकाई है और समाज ब्यक्तियों का समूह ।
संग्रह की जड़ में लालच है और है ,असुरक्षा का भाव , जिसे शिक्षा द्वारा दूर करना होगा । लालच के लिए संतोष और असुरक्षा के लिए ईश्वर / नियति / प्रकृतिपर भरोसा लाना होगा । मनुष्य का नैतिक उत्थान और सामाजिक सहयोग का भाव ही असंग्रह प्रवृत्ति का सहज संधान है । मनुष्य को सीखना होगा कि त्याग का जीवन कितना सुखी और आनंदमय होता है । भारतीय अर्थ - शास्त्री प्रो ० जे ० के० मेहता के '' थियरी आफ वांटलेसनेस '' को जीवन में अपनाना होगा ।
'' बिन संतोष न काम नसाहीं । काम अछत सुख सपनेहु नाही ॥
और,
'' कोऊ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिन । जल बिनु चलै कि नाव कोटि जतन पचि-पचि मरिय ॥ ''
(रामचरित मानस )
४ - ब्रह्मचर्य
एकादश व्रतों में ब्रह्मचर्य चौथा और अति प्रमुख व्रत है । बिना ब्रह्मचर्य के अहिंसा और सत्य की साधना संभव नही है । ब्रह्म का अर्थ सत्य /ईश्वर या परम आत्मा से है और ब्रह्मचर्य का अर्थ है ऐसे रास्ते पर चलाना जों सत्य की और जाता हो । एक नियामक है , जों सम्पूर्ण जगत को चलाता है और मनुष्य को उसी नियामक के अनुसार अपना जीवन ले चलना चाहिए , उसके विपरीत चलने से ब्रह्मचर्य की अवहेलना होती है और हम सत्य- जीवन तथा जीवन- मार्ग से च्युत हो जाते हैं । ( वेदों में ऋत नाम की एक नियामक शक्ति का उल्लेख है जों सम्पूर्ण जगत में ब्यवस्था कायम रखती है - '' ऋतस्य यथा प्रेतः '' यानिकि ऋत के अनुसार ही चलो । पुनश्च , ब्रह्मा को भी विधि नाम दिया गया है , विधि का अर्थ भी नियम ही होता है , सो ब्रह्मा कोई ब्यक्ति नही , नियम ही है जिसके अर्न्तगत विश्व की रचना हुई है )
अपने इन्द्रियों पर संयम रख कर जीवन जीना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना है । हमारे विचारों का हमारे इन्द्रियों पर सदैव नियंत्रण होना चाहिए और इन्द्रियों का उपयोग उनके, उनके अर्थों / विषयों में मर्यादित तथा नैतिक नियमों के तहत होना चाहिए । यौन सम्बन्ध संतानोत्पत्ति हेतु और किंचित शारीरिक आनंद के लिए भी वर्जित नही है परन्तु यह सम्यक और मर्यादित हो । सामाजिक नियमों , नैतिक नियमों तथा स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन नही होना चाहिए । (बुद्ध और जैन धर्म भी सम्यक आहार -विहार और जीवन में मध्यम मार्ग का अनुमोदन करते हैं । योग में तो पञ्च -यमों में ब्रह्मचर्य का चौथा स्थान है । वीर्य -रक्षा , मनुष्य में तेज , बल , बुद्धि , मेधा , ओज और ऐश्वर्य की वृद्धि करता है , इसमें तनिक भी संदेह नही है )
इसी प्रकार सभी इन्द्रियों को उसी उसी कर्मों में रत करना चाहिए जों श्रेय / सत्य की और ले जाते हों और उन सब का निषेध करना जों अन्यथा सत्य के विपरीत पतन की और ले जाने वाले हों । इस प्रकार के कुछ थोड़े लोग भी यदि तैयार हो सकें तो पूरे समाज को शीक्षित और समझा कर उन्नत कर सकते हैं । ( गीता में भी श्री कृष्ण मनुष्य को इन्द्रियों को जीतने के लिए कहते हैं , जों हाथी की तरह प्रमत्त हैं और आसानी से मनुष्यों को अपने विषयों में खीँच ले जाती हैं , इन्हे संयम से रोकना चाहिए )
गाँधी जी के अनुसार ब्रह्मचर्य के बिना सदगुणों और नैतिक नियमों को नही साधा जा सकता और न तो सत्य , न्याय , अहिंसा और सत्याग्रह के क्षेत्र में सफलता ही हासिल की जा सकती है । जिसका अपने इन्द्रियों पर संयम नही है , वह दूसरे को प्रभवित कैसे कर सके गा ? महावीर और विजयी वही हो सकता है , जिसने अपने ऊपर विजय प्राप्त कर लिया हो । (इसी कारण जैन तीर्थंकर को महावीर कहा गया है । )
'' हमको ऐसी शक्ति देना मन विजय करें । दूसरों की जय के पहले ख़ुद की जय करें ''
अपने इन्द्रियों पर संयम रख कर जीवन जीना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना है । हमारे विचारों का हमारे इन्द्रियों पर सदैव नियंत्रण होना चाहिए और इन्द्रियों का उपयोग उनके, उनके अर्थों / विषयों में मर्यादित तथा नैतिक नियमों के तहत होना चाहिए । यौन सम्बन्ध संतानोत्पत्ति हेतु और किंचित शारीरिक आनंद के लिए भी वर्जित नही है परन्तु यह सम्यक और मर्यादित हो । सामाजिक नियमों , नैतिक नियमों तथा स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन नही होना चाहिए । (बुद्ध और जैन धर्म भी सम्यक आहार -विहार और जीवन में मध्यम मार्ग का अनुमोदन करते हैं । योग में तो पञ्च -यमों में ब्रह्मचर्य का चौथा स्थान है । वीर्य -रक्षा , मनुष्य में तेज , बल , बुद्धि , मेधा , ओज और ऐश्वर्य की वृद्धि करता है , इसमें तनिक भी संदेह नही है )
इसी प्रकार सभी इन्द्रियों को उसी उसी कर्मों में रत करना चाहिए जों श्रेय / सत्य की और ले जाते हों और उन सब का निषेध करना जों अन्यथा सत्य के विपरीत पतन की और ले जाने वाले हों । इस प्रकार के कुछ थोड़े लोग भी यदि तैयार हो सकें तो पूरे समाज को शीक्षित और समझा कर उन्नत कर सकते हैं । ( गीता में भी श्री कृष्ण मनुष्य को इन्द्रियों को जीतने के लिए कहते हैं , जों हाथी की तरह प्रमत्त हैं और आसानी से मनुष्यों को अपने विषयों में खीँच ले जाती हैं , इन्हे संयम से रोकना चाहिए )
गाँधी जी के अनुसार ब्रह्मचर्य के बिना सदगुणों और नैतिक नियमों को नही साधा जा सकता और न तो सत्य , न्याय , अहिंसा और सत्याग्रह के क्षेत्र में सफलता ही हासिल की जा सकती है । जिसका अपने इन्द्रियों पर संयम नही है , वह दूसरे को प्रभवित कैसे कर सके गा ? महावीर और विजयी वही हो सकता है , जिसने अपने ऊपर विजय प्राप्त कर लिया हो । (इसी कारण जैन तीर्थंकर को महावीर कहा गया है । )
'' हमको ऐसी शक्ति देना मन विजय करें । दूसरों की जय के पहले ख़ुद की जय करें ''
Wednesday, October 14, 2009
३ - अस्तेय
अस्तेय का अर्थ चोरी न करना है । चोरी का अर्थ किसी दूसरे की संपत्ति , साधन , बुद्धि ,कौशल को बिना उसकी अनुमति के या जानकारी के तथा स्वीकृति लिए बिना लेना , उपयोगमे लाना और उसपर अपना स्वामित्व स्थापित करना है । गाँधी जी एक दूसरे प्रकार की चोरी की बात भी कहते हैं जिसमे हम जरुरत से ज्यादा बस्तुओं का उपयोग करते है , यह चोरी ब्यक्ति से नही समाज से मानी जायेगी । सारी संपत्ति समाज और राष्ट्र की है और राष्ट्र और समाज एक ट्रस्ट के रूप में हैं ,हम एक ट्रस्टी हैं अतः ईमानदारी से हमें अपनी आवश्यकता भर की चीजों का ही उपभोग करना चाहिए और शेष समाज के अन्य सदस्यों के लिए छोड़ देना चाहिए ।
चोरी के मूल में मनुष्य की लालच है , अतः लालच का त्याग करना चाहिए। ईशावाश्य उपनिषद में भी लालच का निषेध किया गया है - '' मा गृधः '' यानि कि लालच मत करो । गीता में भी काम , लोभ और क्रोध को श्री कृष्ण ने मोह , अज्ञान और दुखों का कारण बताया है ।
साथ ही एक बात और चोरी के अर्न्तगत आती है , जब हम , हमें प्राप्त बल ,बुद्धि , कला , कौशल और सभी प्रकार कि संपत्ति को समाज के उन लोगों में नही बांटते जिनमे उन चीजों की कमी , न्यूनता या अभाव है । अर्थात हमें अपनी क्षमता और योग्यतानुसार ब्यक्ति और समाज की सेवा करनी चाहिए ॥ यदि हम ऐसा नही करते तो यह भी चोरी ही है ।
योगसूत्र में पतंजलि कहते हैं - '' जो ब्यक्ति चोरी करता है , वह जीवन भर दरिद्र ही रह जाता है परन्तु जो चोरी की भावना का त्याग करदेता है वह सदा संपन्न रहता है उसे पूरे जीवन दरिद्रता का अनुभव भी नही होता '' जो चोरी करता है , उसका नैतिक जीवन ह्रास और सामाजिक स्थिति पतन को प्राप्त होती है । राम चरित मानस में इसका वर्णन स्वामी तुलसीदास ने करते हुए कहा है - '' जिस रावण से देवता और राक्षस इतने भयभीत थे कि दिन को भोजन नही करते थे और रात को नीद भी नही आती थी वही प्रभुता संपन्न दस सिरों और बीस भुजाओं वाला रावण जब सीता को चुराने चला तो उसकी दशा एक चोर कुत्ते की तरह थी जो इधर उधर देखता हुआ घरों में घुसता है । (कृपया रामचरित मानस पढ़ें )। मनुष्य का ब्यक्तित्व चोरी से कलंकित हो जाता है ।
चोरी के मूल में मनुष्य की लालच है , अतः लालच का त्याग करना चाहिए। ईशावाश्य उपनिषद में भी लालच का निषेध किया गया है - '' मा गृधः '' यानि कि लालच मत करो । गीता में भी काम , लोभ और क्रोध को श्री कृष्ण ने मोह , अज्ञान और दुखों का कारण बताया है ।
साथ ही एक बात और चोरी के अर्न्तगत आती है , जब हम , हमें प्राप्त बल ,बुद्धि , कला , कौशल और सभी प्रकार कि संपत्ति को समाज के उन लोगों में नही बांटते जिनमे उन चीजों की कमी , न्यूनता या अभाव है । अर्थात हमें अपनी क्षमता और योग्यतानुसार ब्यक्ति और समाज की सेवा करनी चाहिए ॥ यदि हम ऐसा नही करते तो यह भी चोरी ही है ।
योगसूत्र में पतंजलि कहते हैं - '' जो ब्यक्ति चोरी करता है , वह जीवन भर दरिद्र ही रह जाता है परन्तु जो चोरी की भावना का त्याग करदेता है वह सदा संपन्न रहता है उसे पूरे जीवन दरिद्रता का अनुभव भी नही होता '' जो चोरी करता है , उसका नैतिक जीवन ह्रास और सामाजिक स्थिति पतन को प्राप्त होती है । राम चरित मानस में इसका वर्णन स्वामी तुलसीदास ने करते हुए कहा है - '' जिस रावण से देवता और राक्षस इतने भयभीत थे कि दिन को भोजन नही करते थे और रात को नीद भी नही आती थी वही प्रभुता संपन्न दस सिरों और बीस भुजाओं वाला रावण जब सीता को चुराने चला तो उसकी दशा एक चोर कुत्ते की तरह थी जो इधर उधर देखता हुआ घरों में घुसता है । (कृपया रामचरित मानस पढ़ें )। मनुष्य का ब्यक्तित्व चोरी से कलंकित हो जाता है ।
Tuesday, October 13, 2009
२ - अहिंसा
सत्य का साधन है अहिंसा सो यह भी सत्य और सत्यांश ही है । सत्य और अहिंसा एक सिक्के के दो पहलू हैं .सत्य सर्वोच्च सिद्धांत और अहिंसा सर्वोच्च कर्तब्य है । अहिंसा संसार की सबसे बड़ी क्रियात्मक शक्ति है जो मनुष्य को प्राप्त है । '' विनाश और मृत्यु के मध्य अहिंसा और प्रेम ही जीवन को प्रतिष्ठापित कर सकते हैं '' (प्लेटो )। हिंसा जीव का स्वभाव है और जीवन के लिए अनिवार्य भी अतः हिंसा का निषेध करना ही मनुष्य का नैतिक नियम होना चाहिए । प्रेम , करुणा , सहायता ,सहयोग और सद्भावना अहिंसा के विधायक स्वरूप है ।
मन ,वचन ,कर्म से किसी को नुकसान न पहुंचाना ;शोषण न करना ; अपमानित न करना ; न सताना ,किसी प्रकार की शारीरिक -मानसिक क्षति न पहुंचाना अहिंसा है । जिसकी मृत्यु निश्चित हो गई हो , पागल कुत्ते या बन्दर और मच्छर को अन्तिम विकल्प के रूप में सुरक्षा के लिहाज से मारना हिंसा नही है ।
अहिंसा विधायक रूप में अपने अमित्र से भी प्रेम कराती है और ऐसा प्रेम करती है जो प्रतिफल न चाहे । शत्रु से घृणा नही प्रेम ही अहिंसा की विशेषता है । शत्रुता को प्रेम और घृणा को सद्भावना से ही हटाया जा सकता है । '' मल की जायं मलाहि के धोये '' (राम चरित मानस )
अहिंसा के तीन स्तर हैं - प्रथम वीरों की अहिंसा, जिसमे शक्ति संपन्न अहिंसा को मान कर दोषी को क्षमा करता है ; दूसरी कमजोरों की अहिंसा जो सामाजिक नियमों और नैतिक नियमों के अर्न्तगत मजबूरी में अहिंसा का पालन करता है औरतीसरी कायरों की हिंसा जो प्रतिकार तो चाहता है परन्तु कर नही सकता । कायरों की अहिंसा से तो हिंसा ही श्रेष्ठ है ।
अहिंसा की ही विजय होती है क्यों कि वह सत्य ही है और सत्य की जय होती ही है । '' सत्यमेव जयते '' । हिंसा सदैव पराजित होती है , इतिहास गवाह है - घृणा मारती है , प्रेम कभी नही मरता । अहिंसा एक शाश्वत नियम है , गाँधी ने केवल इसका अपने जीवन और राजनीति तथा समाज में प्रयोग किया ।
दशरथ ने वचन के लिए ; राम ने आज्ञा -पालन के लिए , भरत ने नीति के लिए , हरिश्चंद ने सत्य के लिए , शिबि दधिची ,कर्ण और वलि ने दान के लिए , बुद्ध ने करुणा के लिए , सुकरात ने अपने वसूलों के लिए , जीसस ने प्रेम के लिए और गाँधी ने अहिंसा के लिए अपने जीवन का वलिदान किया है । सदगुण वलिदान मांगते हैं ।
गाँधी कहते हैं , अहिंसा कोई मेरा नियम नही है यह पूरे मानव जाति का शाश्वत नियम है मैंने इस पर थोड़ा चलने की कोशिस की है । देखिये - '' अहिंसा परमो धर्मः '' - जैन । '' परम धरम जग विदित अहिंसा '' - राम चरित मानस । '' हिंसा तन्निरोधे वैर त्यागः '' - योगसूत्र में पतंजलि । '' परोपकाराय पुण्याय , पापाय परपीडनम '' - व्यास महाभरत में .
मन ,वचन ,कर्म से किसी को नुकसान न पहुंचाना ;शोषण न करना ; अपमानित न करना ; न सताना ,किसी प्रकार की शारीरिक -मानसिक क्षति न पहुंचाना अहिंसा है । जिसकी मृत्यु निश्चित हो गई हो , पागल कुत्ते या बन्दर और मच्छर को अन्तिम विकल्प के रूप में सुरक्षा के लिहाज से मारना हिंसा नही है ।
अहिंसा विधायक रूप में अपने अमित्र से भी प्रेम कराती है और ऐसा प्रेम करती है जो प्रतिफल न चाहे । शत्रु से घृणा नही प्रेम ही अहिंसा की विशेषता है । शत्रुता को प्रेम और घृणा को सद्भावना से ही हटाया जा सकता है । '' मल की जायं मलाहि के धोये '' (राम चरित मानस )
अहिंसा के तीन स्तर हैं - प्रथम वीरों की अहिंसा, जिसमे शक्ति संपन्न अहिंसा को मान कर दोषी को क्षमा करता है ; दूसरी कमजोरों की अहिंसा जो सामाजिक नियमों और नैतिक नियमों के अर्न्तगत मजबूरी में अहिंसा का पालन करता है औरतीसरी कायरों की हिंसा जो प्रतिकार तो चाहता है परन्तु कर नही सकता । कायरों की अहिंसा से तो हिंसा ही श्रेष्ठ है ।
अहिंसा की ही विजय होती है क्यों कि वह सत्य ही है और सत्य की जय होती ही है । '' सत्यमेव जयते '' । हिंसा सदैव पराजित होती है , इतिहास गवाह है - घृणा मारती है , प्रेम कभी नही मरता । अहिंसा एक शाश्वत नियम है , गाँधी ने केवल इसका अपने जीवन और राजनीति तथा समाज में प्रयोग किया ।
दशरथ ने वचन के लिए ; राम ने आज्ञा -पालन के लिए , भरत ने नीति के लिए , हरिश्चंद ने सत्य के लिए , शिबि दधिची ,कर्ण और वलि ने दान के लिए , बुद्ध ने करुणा के लिए , सुकरात ने अपने वसूलों के लिए , जीसस ने प्रेम के लिए और गाँधी ने अहिंसा के लिए अपने जीवन का वलिदान किया है । सदगुण वलिदान मांगते हैं ।
गाँधी कहते हैं , अहिंसा कोई मेरा नियम नही है यह पूरे मानव जाति का शाश्वत नियम है मैंने इस पर थोड़ा चलने की कोशिस की है । देखिये - '' अहिंसा परमो धर्मः '' - जैन । '' परम धरम जग विदित अहिंसा '' - राम चरित मानस । '' हिंसा तन्निरोधे वैर त्यागः '' - योगसूत्र में पतंजलि । '' परोपकाराय पुण्याय , पापाय परपीडनम '' - व्यास महाभरत में .
Sunday, October 11, 2009
गाँधी के एकादश व्रत
गाँधी जी की सायंकालीन प्रार्थना के अंत में ग्यारह व्रत लिए जाते थे जिनका पालन करने की उम्मीद की जाती थी । इस पूरी प्रार्थना को हम बाद में लिखेंगे . इन्हे एकादश व्रत के रूप में जाना जाता है ,इनका एक एक करके हम वर्णन करेंगे जिनसे हमको गाँधी जी के विचारों को समझने में पूरीतरह मदद मिलेगी -
१- अहिंसा , २ - सत्य , ३ - अस्तेय , ४ - ब्रह्मचर्य , ५- असंग्रह , ६ - शरीरश्रम , ७ - अस्वाद , ८ - सर्वत्र - भय -वर्जन , ९ - सर्वधर्म -समानत्व , १० - स्वदेशी , ११ - स्पर्श -भावना (विनम्र व्रत निष्ठा से ए एकादश सेब्य हैं ।)सत्य
सत्य का वर्णन हम पहले सत्य और ईश्वर के रूप में कर चुके हैं । सत्य को गाँधी जी दो स्तर का मानते हैं ; एक निरपेक्ष सत्य जों कभी किसी परिस्थिति में नही बदलता और जों साध्य है और दूसरा सत्य वह जों सापेक्ष है और साधन के रूप में प्रयुक्त होता है । यह सत्य , समय , स्थान और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है , इसकी कसौटी परम सत्य ही है । सच बोलना , सत्य आचरण करना , सच्ची मित्रता करना , सच्चे सम्बन्धों का निर्वहन करना , सत्य निष्ठां से अपने कर्तब्यों का पालन करना और जीवन के सभी कार्यों और क्षेत्रों में सीधा और सच्चा होना परम सत्य को प्राप्त करने का साधन है । बाहर भीतर से एक सा होना सोचना और आचरण करना , जों मन में वही वाणी में और वही कर्म में जिसके हो वह सच्चा और परम सत्य के मार्ग का पथिक है । सत्य को पाने के लिए सबसे पहला और महत्वपूर्ण कार्य है ,पूरे जीवन में पूरी निष्ठां से हर समय और हर परिस्थिति में अहिंसा व्रत का पालन । इस व्रत की चर्चा हम आगे करते हैं ।
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