Wednesday, December 2, 2009

Thursday, October 1, 2009

साध्य और साधन .

गाँधी जी साध्य और साधन में कोई भेद नही करते जिस तरह से इमैनुअल कांट कर्म और फल में अन्तर नही करते । गाँधी जी का साध्य सत्य का साक्षात्कार है और अहिंसा ही उसका साधन है । मनुष्य का उन्नत होना ही सत्य के पास पहुँचना है अतः मनुष्य भी साध्य ही है साधन नही । महान नैतिक दर्शन का चिन्तक कांट भी ठीक यही बात कहता है , '' ह्यूमन इंडिविजुअल ऐज end नाट ऐज मीन्स ''
गाँधी जी जीवन के हर क्षेत्र में साधन की पवित्रता पर पूरा जोर देते है । साधन पवित्र नही है तो साध्य कभी भी ग्रहण योग्य नही है । जों काम नही करता वह चोरी का खाता है ; आनंद जिसमे विवेक और चेतना नही है ,ब्यर्थ ही समझो ; चरित्र नही है तो ज्ञान पाने का कोई लाभ नही ; ब्यापार , बिना ईमानदारी और सेवा- भाव की नैतिकता के पाप है ; विज्ञानं की उन्नति मानवता के हित में होना चाहिए ; धर्म बिना परहित और त्याग के और राजनीति बिना धर्म और नैतिक सिद्धांतों के कोई अर्थ नही रखता । '' वैष्णव जन तो तेने कहिये जों पीर पराई जाने रे ''
'' राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा । हरिहिं समर्पे बिनु सतकर्मा ॥
विद्या बिनु बिबेक उपजाए । श्रम फल पढ़ें कियें अरु पाए ॥ '' - राम चरित मानस , अरण्य कांड ।
गाँधी ज कहते है , जों ब्यक्ति एक स्थान पर ग़लत है वह दूसरे स्थान पर सही नही हो सकता । जैसे सदगुण स्वयं में अपना पूर्ण फल है वैसे ही कुकृत्य ,अपराध और पाप कर्म अपने में स्वयं परिपूर्ण हैं । '' crime like virtue are their own rewards '' और - '' सुधा सराहिय अमरता गरल सराहिय मीचु '' - राम चरित मानस ।

Tuesday, September 15, 2009

गाँधी के शिक्षा सम्बन्धी विचार

गाधी जी सभी सात से चौदह वर्ष के बालकों को अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा देना चाहते थे और इसे वे बुनियादी तालीम /शिक्षा कहते थे । इसका उद्येश्य एक अभिनव , आदर्श मनुष्य बनाना है जो एक पूर्ण नागरिक के गुणों से युक्त हो । इस शिक्षा में - १ - आर्थिक , सामाजिक , राजनैतिक -अधिकारों , कर्तब्यों की समझ का समावेश हो । २ - क्षात्र की योग्यतानुसार किसी शिल्प / कौशल /कला की शिक्षा दी जाय जो उसे स्वावलंबी बना सके । ३ - मानवीय सदगुणों की शिक्षा दी जाय जैसे सत्य , अहिंसा , प्रेम , सहयोग सर्व धर्म सम भाव आदि आदि । ४ - राष्ट्र प्रेम और अन्तर राष्ट्रिय सौहार्द्र की समझ ।
शिक्षण संस्थाएं पहले राज्यों द्वारा चलाई जायं बाद में वे उत्पादक केन्द्र हों और स्वावलंबी हों । ज्ञान को उत्पादक कार्य से जोड़ा जाय । कार्य क्षेत्र को शिक्षा केन्द्र और शिक्षा केन्द्र को उत्पादक कार्य क्षेत्र ऐसा दोनों को एक में आमेलित किया जाय । शिक्षा हर प्रकार जीवन से जुड़ी हो ।
उच्च शिक्षा उसी को सरकार दे, जिसकी जितनी जरुरत हो । सबको उच्च शिक्षा देना बेकारी बढाना है । तकनिकी उच्च शिक्षा निजी संस्थानों को देनी चाहिए जिनको ऐसे लोगों की जितनी जरुरत हो । शोध संसथान इन्ही उत्पादक संस्थानों के शिक्षा केन्द्रों में संचालित हों ।
शिक्षा का और शिक्षक का काम बालक में से वह गुण बाहर लाना है जो उसमे पहले से नैसर्गिक रूप में विद्यमान है । शिक्षा प्रक्रिया में दंड देना चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक , शिक्षक की अयोग्यता का प्रमाण है , शिक्षक को इससे विरत रहना चाहिए । शिक्षक को अपने जीवन में भी वैसा ही होना चाहिए जैसा वह क्षात्र को बनाना चाहता है ।
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