Wednesday, December 2, 2009

Saturday, September 12, 2009

गाँधी का सामाजिक दर्शन

गाँधी का समाज -जनतांत्रिक , स्वावलंबी और स्वशासित होगा .इस समाज का प्रत्येक ब्यक्ति सब का हित चाहने वाला , स्वयं में अनुशासित , अपनी योग्यता के अनुसार काम करके खाने वाला स्वावलंबी और अहिंसक होगा । संगठित मनुष्यों के समुदाय और सहयोग पर आधारित समाज की एक छोटी ईकाई होगी जिसमे सभी उच्च मानवीय आदर्शों से युक्त होंगे । साम्यवाद के सिद्धांत से सहमत हर ब्यक्ति क्षमता के अनुसार काम करेगा और आवश्यकता के अनुसार प्राप्त करेगा और जो कमाएगा नही वह खायेगा भी नही । जो बिना कमाए / परिश्रम किए खता है , वह चोर है । सभी का जीवन सादगी और त्याग का होगा , सदगुणों से युक्त ब्यक्ति ही समाज बनाएगा सो पूरा समाज / समुदाय सदगुणी ही होगा । इसे गाँधी जी राम -राज्य के आदर्शों पर आधारित पंचायत और ब्यवस्था को पंचायती जनतंत्र कहते हैं । पंचायत की यह ईकाई अपनी सभी आवश्कताओं को पूरा कराने यहाँ तक कि सारी दुनिया से अपनी सुरक्षा कराने में समर्थ होगी । हर सदस्य को इस बात कि पूरी शिक्षा दी गई होगी कि वह अपने समुदाय के हितों के लिए मरने तक को तैयार हो ।
गाँधी का समाज अगणित ग्रामों से बना पिरामिड - संगठन नही होगा जिसके शिखर को तल से सहायता मिलती हो किंतु महासागर सा एक वृत्त होगा जिसका केन्द्र ब्यक्ति ही होगा । ब्यक्ति का उत्कर्ष ही समुदाय का उत्कर्ष है । सभी काम सहकारिता , स्नेह और त्याग के सिद्धांतों पर किए जायेंगे । सामाजिक ब्यवस्था विकेन्द्रित और न्याय पर चलेगी क्योंकि केन्द्रीकरण बिना शक्ति और हिंसा के नही चल सकती और गाँधी का समाज पूर्ण अहिंसक होगा । समुदाय पर नियंत्रण नैतिक शक्ति का होगा । संग्रह का निषेध होगा सो अमीर गरीब नही होंगे । शोषण और अनाचार कि संभावना घटती ही चली जायगी ज्यों ज्यों ब्यक्ति उन्नत और सदगुणी होता जाएगा । स्वदेशी का अर्थ है वह सब पैदा करना जिसकी हमें जरुरत हो और हम जो पैदा करते हैं उसी से अपने जीवन की आवश्यकताओं को पूरा कर लें और उतने से संतुष्ट हों अथवा उसे पैदा करने का उपक्रम करें जो बहुत जरुरी है
जाति / वर्ण ब्यवस्था नही होगी , योग्यता , क्षमता के आधार पर लोग कम करेंगे और आवश्यकता के आधार पर उनको दिया जायेगा । परिश्रम चाहे वह जूता बनाने का हो या शिक्षक का या वकील या मुखिया का , सब का बराबर आदर होगा , जो ज्यादा समर्थ और विशेष रूप में किसी योग्यता / क्षमता में दक्ष और कुशल है , वह स्वेच्छा से बिना किसी मूल्य के ब्यक्ति और समाज को देगा और मदद करेगा ।
समाज / समुदाय / पंचायत एक ट्रस्ट की तरह होगा और सबको अपनी आवश्यकता के अनुसार ही भोग करने की अनुमति होगी यानि कि अपरिग्रह / असंग्रह का नियम सब पर स्वच्छा से लागू रहेगा । कृषि की प्रधानता होगी , छोटे उद्योग रहेंगे , विज्ञानं की प्रयोग -शालाएं गावों में होंगी , छोटे यंत्रों का प्रयोग होगा जो मनुष्य के श्रम को कम करें , मनुष्य के जीवन को सरल , सुखी और संपन्न बनने की खोजें जरी रहेंगी ।
सत्य होगा , सत्य के लिए सत्याग्रह होगा और अहिंसा , प्रेम , करुणा , सहयोग से युक्त एक बड़ा परिवार ही गाँधी के समाज की परिकल्पना है । समाज का ब्यक्ति अलग परन्तु अंतरात्मा एक ही होगी । आत्म संयम और आत्मोन्नति यही समाज का चरम लक्ष्य होगा ।

Friday, September 11, 2009

गाँधी का राजनैतिक दर्शन

राजनीति को अध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्यों के बिना चलाना और हिंसा का प्रयोग गाँधी जी को मान्य नही था । साथ ही साथ वे राजनीति को धर्म के साथ जोड़ कर देखना चाहते थे । पाश्चात्य राजनीति प्रजातंत्र की आड़ में फासीवादी और सम्राज्यवादी है । रंग भेद की नीति अमानवीय है और सबकी स्वतंत्रता और संप्रभुता की इज्जत होनी चाहिए । आर्थिक असमानता और शोषण मानव जाति के लिए कलंक हैं ।
गाँधी जी ब्यवहारिक तौर पर थोडी सेना रखने के समर्थक और विश्व शान्ति तथा नीरश्त्रीकरण के पक्षकार थे । सर्वभूत हित के सिद्धांत और सर्वोदय का विचार जो ट्रस्टीशिप के सिद्धांत पर आधारित है , गाँधी जी की प्रमुख सामाजिक ब्यवस्था की परिकल्पना है , वे बहुमत के कल्याण के सिद्धांत ( लाक ) के खिलाफ हैं । वे वर्तमान राज्य जो हिंसा और शक्ति के केन्द्र बने हुए हैं, को , उचित शिक्षा द्वारा आदर्श राज्य में बदले जाने चाहिए , जहाँ हिंसा और शक्ति का प्रयोग शून्य की तरफ़ इंगित करता हो । उनका समाज एक अराजकतावादी राम राज्य होगा जहाँ न सेना होगी न अस्पताल न न्यायालय परन्तु सभी कार्य मानव स्वभाव की गुणवत्ता से स्वयं संचालित होते रहेंगे ।
गाँधी का सत्याग्रह का विचार सत्य की स्वाभाविक एवं सार्वभौमिक आधारशिला पर प्रतिष्ठित था जिसके अनुसार सत्य एवं ईश्वर एक ही हैं । सत्याग्रह , अन्याय , जबरदस्ती , शोषण और अनाचार के खिलाफ आत्मा की पवित्र आवाज को निर्भय होकर प्रकट करना है । सत्यग्रह अमानवीय दुराचरण का अहिंसक प्रतिरोध है । सत्याग्रह , ब्यक्ति , समूह और सरकार के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सकता है । यह मानव का स्वाभाविक , जन्म सिद्ध अधिकार है । सत्याग्रह की शीक्षा परिवार से ही प्रारम्भ हो जाती है ।
गाँधी जी आत्मा की उच्चता और पवित्रता में आस्थावान थे , जो आत्मा के अनुकूल न हो उसका विरोध करना होगा । वे बहुमत नही सर्व मत के समर्थक थे और सांसद के बहुमत के निर्णयों के विरोधी । एक ब्यक्ति भी यदि किसी बात पर विरोध में है तो उसके विरोध को पूरा पूरा सम्मान और महत्व देना चाहिए । बुरे के विरोध में उठना हर आदमी का पवित्र कर्तब्य है और संसद यदि ठीक से काम न करे तो उसे भंग करदेना देश के हित में है ।
राष्ट्रीयता , अन्तर- राष्ट्रीयता का साधन है । राष्ट्र एक इकाई है और विश्व एक संयुक्त -राष्ट्र । सभी देशों की आर्थिक , राजनैतिक , सामाजिक , शक्षिक और रंगभेद रहित समझ को बराबरी और समरसता के बौद्धिक स्तर पर लाना आज की पहली मांग है । जबतक पूर्ण विश्व में पूर्ण शान्ति न हो एक विश्व -शान्ति सेना हो.
स्वतंत्रता के हामी और राज्य की सेवा द्वारा सर्व समाज का कल्याण उनका मूल मन्त्र है । सभी ब्यक्ति , समूह और राष्ट्र को स्वतंत्र होना ही चाहिए जिससे वे अपना अपना विकास कर सकें ।
अपराधी को जेल में रख कर उनका सुधार करना होगा सो यह जेल नही सुधर गृह ही कहा जाए । अपराधी को सहानुभूति , सुख सुबिधा के साथ अपराध के होने और करने के कारणों का निदान और उपचार करना चाहिए । न्यायालय का पूरा ध्यान दंड पर नही सुधार पर हो और ऐसा सब कुछ किया जन चाहिए जिससे अपराधी के भीतर का आदमी बाहर आ सके । गाँधी जी एक अहिंसक सेना संगठन में विश्वास रखते थे । न्याय में बिलम्ब बहुत बड़ा अन्याय है जिसका जिम्मेदार राज्य और न्याय ब्यवस्था है , प्रायः न्याय उसको मिलता है जो बड़ा वकील अपने पक्ष में खड़ा कर सके , गरीब को इस तरह न्याय कभी कभी ही मिल पाता है ।
राज्य के नेताओं औरधिकारियों को ब्य्कतिगत जीवन में निहायत इमानदार , परोपकारी , सरल और सादा जीवन -उच्च विचार का पालन करने वाला होना चाहिए और जिसमे त्याग , करुना और देश-भक्ति कूट कूट कर भरी हो ,। भ्रष्ट और अयोग्य नेता अधिकारी को कठिन दंड देकर तुंरत सत्ताच्युत कर देना चाहिए ।

गाँधी की दृष्टिमे आत्मा

आत्मा वह तत्व है जो ईश्वर से सम्बंधित है । अतः सभी आत्माओं में एकत्व है । मनुष्य के शरीर भले भिन्न भिन्न हों पर सबकी आत्मा एक ही है । यह ब्यक्तिगत आत्मा ईश्वर का ही छोटा अंश है , जैसे सागर का एक बूंद । आदमी का ध्येय ईश्वर से संयोग है , जब वह अपनी एक बूंद होने की समझ / अंहकार गलाकर सागर में मिलने का पात्र हो जाय । जीव तो अलग अलग और भिन्न हैं पर आत्मा एक है सो सबके उद्धार के बिना एक का उद्धार ब्यर्थ ही है ,अतः सबको , सबका भला करना चाहिए इसी में ब्यक्तिगत हित निहित है ।
मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है , वह आत्मा शरीर पर निर्भर नही है । एक ब्यक्ति का विकास सबका विकास और उसका पतन सबका पतन है । मानवता और यहाँ तक पूरी सृष्टि एक ही ईकाई है और इन सब में आत्मा की शक्ति महानतम है । इस अपनी ब्यक्तिगत आत्मा को पूर्ण बनाने के लिए और परम आत्मा से मिलने के लिए अहिंसा का पूर्ण पालन अनिवार्य है ।
गाँधी की आत्मा सम्बन्धी अवधारणा , गीता और उपनिषदों में वर्णित जीव / आत्मा / परमात्मा की अवधारणा से उदभूत है । राम चरित मानस की चौपाई गाँधी का मूल कथन है - '' ईश्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥ ''

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