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श्री भगवान कहते है , -जो लोग अपने मन को मेरे साकार रूप में एकाग्र करते है वे परम सिद्ध हो सकते हैं ।
लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके ,समभाव रख कर उस परम सत्य की निराकार रूप में साधना करते है , जो सर्व ब्यापी , अकल्पनीय , अनुभव से परे , अपरिवर्तनीय , अचल तथा ध्रुब है , वे भी मुझे प्राप्त करते हैं ।
मेरे में अपने चित्त को लगाओ , यदि ऐसा नहीं कर सकते तो मुझे प्राप्त करने की चाह पैदा करो ।
यदि ऐसा भी नही कर सकते तो मेरे लिए सभी कर्म करके भी सिद्धि प्राप्त कर सकते हो । 12/ 2, 3 , 4, 8 , 9 , 10 , 11 , 12
अब सुनो ज्ञान और ज्ञानी के विषय में - विनम्रता , दम्भ हीनता , अहिंसा , सहिष्णुता , सरलता , योग्य गुरु का सानिध्य , पवित्रता , स्थिरता , इन्द्रिय तृप्ति हेतु विषय भोग का त्याग , अहंकार का त्याग , जन्म मृत्यु जरा रोग की अनुभूति , वैराग्य , सुत , वित् , नारि ईषना का त्याग , अच्छे , बुरे के प्रति समभाव , अकेले रहने की इच्छा , जन समूह से विलगाव , आत्म साक्षात्कार की आकांक्षा , परम सत्य की दार्शनिक खोज की जिज्ञासा और मेरे प्रति अनन्य , निरंतर भक्ति , यही ज्ञान है , शेष अज्ञान है । 13 / 8 , 9 , 10
परमात्मा सभी में ब्यप्त होकर अवस्थित है । परम सत्य जड़ जीवों में बाहर भीतर स्थित है । यह सभी में विभाजित तो लगता है पर है नही । वह अविभाजित एक रूप में सब जड़ ,जीवों में स्तिथ है ।
वही देखता है जो परमात्मा को सब में और सब में उस परमात्मा को देखता है । 13/ 14 , 16 , 17 , 28.
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