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अकर्ता (कर्म के अनारंभ से ) को मोक्ष नही हो सकता , न तो सन्यास से सिद्धि मिल सकती है । 3 / 4 .
मनुष्य अपने प्रकृति (स्वभाव , धर्म ) वश ही कर्म करने को वाध्य है । कोई भी विना कर्म किए एक क्षण भी नहीं रह सकता । 3 / 5 .
नियत कर्म करो , क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ट है ॥ विना कर्म के तो शरीर यात्रा भी संभव नहीं है ।3 / 8 .
जो आत्म तृप्ति , आत्म संतोष ,आत्म साक्षात्कार और आत्म रति से युक्त हो गया हो , उसके लिए कुछ करने को नहीं है । 3 / 17 .।
जनक जैसे अन्यलोगों ने भी कर्म से सिद्धि प्राप्त की । लोक संग्रह के विचार से भी कर्म करो । 3 / 20 ।
श्रेष्ट जैसा आचरण करते हैं ;सामान्य जन और लोक भी उसीका अनुसरण करता है । 3 / 21 . ।
ज्ञानी भी प्रकृति वश तदवत कर्म करता है , भला कर्म निग्रह से क्या लाभ ? 3 / 33 . ।
अपने ( स्वधर्म) नियत कर्म , भले वह दोषपूर्ण हो ; अच्छे से किए गए दूसरे के काम से श्रेष्ट है । अपने कर्म को करते हुए मृत्यु प्राप्त करना श्रेयष्कर है ; अन्यथा कोई कर्म भयावह है । 3 / 35 .।
देखो अर्जुन ! मेरे लिए तो कुछ भी करना शेष नही तो भी सदा कर्म रत रहता हूँ । 3 / 22 ।
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