Friday, February 28, 2014

गीता में सत् और असत = आत्मा का स्वरूप [अध्याय दो ]

परम तत्व दर्शी कहते हैं , - असत के होने का सवाल ही नहीं है और सत् कभी भी नष्ट नही हो सकता । २/१६इस प्रकार यह आत्मा जो हमारे शरीर में ब्याप्त है अविनाशी और अब्यय है । २/१७ यह हमारा भौतिक शरीर जिसमें अविनाशी अप्रमेय तथा शाश्वत आत्मा का निवास है ,परिवर्तित होता रहता है । २/१८ आत्मा नतो जन्मती है , न मरती है ; न तो यह थी , न होगी , यह तो सदा सर्वदा है ; यह अति प्राचीन ,नित्य , शाश्वत और अजन्मा है ; न यह मरती है , न मारती है । २/२० यह आत्मा पुराने शरीर को जीर्ण हो जाने पर उसे बदल कर नया धारण कर लेती है । २/२२ यह आत्मा विभाजित नहीं हो सकती , आग से जलती नही , न पानी इसे गीला कर सके न हवा सुखा सके । २/२३ यह आत्मा अखंडनीय , अघुलनशील , न सुखायी जा सकने वाली , शाश्वत , सर्वब्यापी, अविकारी , स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाली है । २/२४ यह आत्मा अदृश्य , अकल्पनीय और अपरिवर्तित है । २ /२५ सारे जीव प्रारम्भ में अब्यक्त बीच में ब्यक्त और अंत में पुनः अब्यक्त हो जाते हैं , यही जन्म -मृत्यु है । २/२८

No comments: