हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक लेख ( मौलिक , इसे अलग से पढ़ें ) " नाखून क्यों बढ़ते हैं "लिखा है , यह लेख मनुष्य में बढ़ते हिंसा भाव की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति है । गीता में कृष्ण ने मनुष्य में दो ही प्रमुख दोष बताएं हैं , काम और क्रोध । क्रोध का कारण भी काम ही कहा है । वस्तुतः क्रोध आदमी की एक जन्मजात मूल प्रवृत्ति है जो हिंसा का रूप ले लेती है , यह आदमी की स्वाभाविक कमजोरी है जो तभी प्रकट होती है जब आदमी हताश निराश और हारने के करीब होता है । जो ताकतवर होता है उसे क्रोध नहीं आता । जो भी लोग अस्त्र शस्त्र रखते हैं , या तो आक्रमण के लिए अथवा सुरक्षा के लिए , असली बात तो यही हुई कि दोनों हैं , डरे हुए लोग हैं . । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सेना रखने के यही दो कारन हैं , आक्रमण और सुरक्षा । यहाँ भी दोनों देश डरे हुए हैं ।
इस प्रकार साधारण भाषा में हम जिन्हें अस्त्र शास्त्र से सुसज्जित बहादुर कहते हैं , सत्यतः वे सभी डरे हुए लोग हैं । देखिये जब हम पर रस्ते में कुत्ता भौंकता है तो हम एक पत्थर या ईंट का टुकडा हाथ में उठा लेते हैं , क्यों ? क्यों कि हम डर गए । कुछ लोग तो क्रोध में एक दूसरे से लड़ भी लेते हैं परन्तु कुछ इतने कायर होते है कि ख़ुद तो लड़ नहीं सकते तो दूसरों को लड़ाकर या लड़ते हुए लोगों को देख कर संतुष्ट हो लेते है । यह उनके भीतर बहुत गहरे में छिपी हुई हिंसा ही है । जो लोग पशु पक्षी और जानवरों को लड़ते हैं वह भी उनकी छिपी हुई हिंसा ही है । ।
इस प्रकार जो किसी को डराते हैं वो कायर ही हैं , दिखाते यह हैं कि वे वीर हैं क्यों कि उनके अंतस में कहीं डर है जो अग्रिम सुरक्षा के प्रति सचेत है । जो न किसी को डराता , न किसी से डरता है , वही वीर है . महावीर वह है , जिसने अपने इन्द्रियों को जीत लिया हो ( जैन महावीर और हनुमान )। "प्रभो हमें शक्ति देना मन विजय करें । दूसरों की जय के पहले ख़ुद विजय करें । जो मन को अपने वश में कर चुका है जितना , वह उतना ही अभय हो चुका है । अभय न डरता है , न डराता है और असली वीर है । (आजकल समाचार चेनेल्स पर शायद ज्यादा लोग इसीलिए मन से देखते हैं की उनके रिपोर्टर मार पीट के दृश्य बहुतायत से लाते और परोसते है । इन दृश्यों से दर्शक अपने हिंसा की छिपी प्रवृत्ति को संतुष्टकरते हैं । )
हिंसा की कभी जीत नहीं हुई । न कभी होगी , जिस दिन हिंसा की जीत होगी उस दिन आदमी नहीं होगा ,यह ध्रुब सत्य है । हिंसा का खेल चल सकता है , चाहे जितना लंबा चले परन्तु उसका अंत ही होगा यदि हिंसा की जीत हुई तो आदमी हारेगा और उसका अंत हो जाएगा ............लोहिया जी कहते थे , " इस समाया दुनिया में दो ही ताकतें हैं , एक गाँधी की अहिंसा और दूसरा परमाणु बम , यदि परमाणु बम जीता तो दुनिया जायेगी और यदि दुनिया को रहना है तो गाँधी को (अहिंसा )बचाए रखना हमारी मजबूरी है । "सत्यमेव जयते , अहिंसामेव जयते ।
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