भारतीय दर्शन चिंतन परम्परा में पतंजलि संभवतया प्रथम वैज्ञानिक हैं, जिन्हों ने चेतना को श्रृष्टि का मूल पदार्थ बताया । मार्क्स का पदार्थ वाद तो फ़ेल हो चुका और अज का विज्ञानं वहीँ पहुचने वाला है , जहाँ हजारों हजार साल पहले वेदांत पहुंच चुका है । योग के आठ अंग हैं - यम् , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि । अज हम यम् और नियम का समास वर्णन करते हैं ।
यम् पांच हैं , १ - अहिंसा ; किसी को भी मन , वाणी और कर्म से कहीं , कभी और कैसे भी कोई नुकसान न पहुंचाना । २ - सत्य ; सच बोलना , सदाचरण और सदब्यवहार करना , सत्य का शोधन कर उसी मार्ग पर चलना , समझ में न आए तो विवेकशील ब्यख्ति से सीखना। ३ -अस्तेय ; चोरी न करना , यानि कि जो बस्तु आपकी न हो उसे जिसकी है उसकी जानकारी बिना और बिना अनुमति के न लेना , न अपने प्रयोग में लाना । ४ - ब्रह्मचर्य ; नैतिक और सामाजिक नियमों के अंतर्गत संतानोत्पत्ति के अतिरिक्त संयम पूर्वक रति कर्म से विरत रहते हुए सभी इन्द्रियों पर उचित नियंत्रण रखना जैसे कछुआ अपने अंगों पर रखता है । ५ - असंग्रह ; अपनी आवश्यक आवश्यकताओं से अधिक अपने पास एकत्रित न करना । यह ध्यान रखने कि बात है कि सभ पाँचों यम् मनुष्य के लिए उसके अन्दर यानि कि मन साधने के लिए हैं , भीतर प्रयोग हेतु ।
नियम भी पांच ही हैं ; १ -शौच ;शरीर और मन को सदैव साफ , शुद्ध और पवित्र रखना , बाहरी और भीतरी सफाई , निर्मल तन और निर्मल मन , " निर्मल मन जन सो मोहिं भावा - राम चरित मानस में श्री राम का कथन । २ -संतोष , जो प्रभु कृपा और अपने तुच्छ प्रयास से प्राप्त हो उसी में संतुष्ट रहकर योग्यता क्षमतानुसार बेहतर के लिए प्रयास रत रहना । " जथा लाभ संतोष सदा , काहू सो कछु न चहौंगो ।" - विनय पत्रिका में तुलसी दास जी । ३ - तप , विलासिता के जीवन को त्याग कर यथाशक्ति गर्मी सर्दी भूख प्यास सुख दुःख में रह लेने कि क्षमता विकसित कर लेना । प्रकृति के साथ समन्वित जीवन जीने का स्वभाव निर्मित करना । ४ - स्वाध्याय , पढ़ना , लिखना , सीखना , सिखाना और उस पर चिंतन मनन तथा उसका अनुशीलन करना । अनुभव से सीख कर अपने ब्यख्तित्व को सुधारना , सवांरना , समुन्नत करना । ५ -ईश्वरप्रणिधान , ईश्वर के शरण में रह कर उसकी प्रेरणा से सभी कार्य करना और ईश्वर में पूरी श्रद्धा रखते हुए योग मार्ग और योग क्रियाओं को आगे बढ़ाना । (आगे चलकर पतंजलि ने ईश्वर प्रणिधान को सारी योग क्रियाओं का एक विकल्प भी बताया है , जिसकी चर्चा अलग ब्लॉग में कर चुका हूँ । ) सभी नियम शरीर और मन के बहार के लिए हैं अर्थात बाह्य ब्यवहार ।
यम् और नियम इन दोनों का संधान और सिद्धि करके ब्यख्ति बाहर और भीतर से शुद्ध और पवित्र हो जाता है । यम् नियम कि सिद्धि से लौकिक जीवन भी बदल जाता है , मनुष्य का ब्यवहार भी परिमार्जित और सुसंस्कृत हो जाता है । यम् नियम कि सिद्धि की उपलब्धियां भी हैं जो प्रत्यक्ष और वैज्ञानिक रूप में सत्यापित की जा सकती हैं । यथा , - हिंसा तन्निरोधे वैर त्यागः ; अर्थात जब किसी में अहिंसा नामक यम् की सिद्धि हो जाती है तो लोग उससे वैर त्याग कर उसके मित्र हो जाते हैं । यही कारन था , ऋषियों के आश्रमों में सभी जीव जंतु एक साथ प्रेम से हिंसा का त्याग कर रहते थे। ऐसे ही सभी यमों और नियमों के फल कहे हैं । इसकी चर्चा फ़िर कभी करेंगे ।
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