समाज में रहकर समायोजन करना एक सफलता सूत्र है । जो सत्य और सरल है , वह सर्वोत्तम रूप में समाज में समायोजित है , कहिये की उसे कभी भी , कहीं भी , किसी के साथ समायोजन की कोई समस्या ही नही है । इसीलिए कहा कि सांचको आंच नहीं । अभी पीछे मैंने एक प्रकरण में कहा, कोई अच्छा कम करने पर उसके फल हेतु विश्वास कीआवश्यकता नहीं है । बस्तुतः जहाँ संदेह है वहां विश्वास की आवश्यकता अनिवार्य है । संदेह नहीं तो विश्वास अपेक्षित नहीं है । देखिये , राम चरित मानस में सारी कथा संदेह पर ही चलती है । १-भरद्वाज का , उमा का , गरुण का ; इन सभी को संदेह हो गया था कि राम क्या सही में अज ब्रह्म होते हुए भी राजाके घर आदमी होकर पैदा हुए थे। संदेह मिटाने के लिए दो बातें जरुरी हैं , एक सत्यज्ञान और दूसरा (यदि पहला नहीं है ) विश्वास और विश्वास के लिए चाहिए श्रद्धा । सो तुलसी दास ने कहा , "भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रुपिणौ । " यहाँ भवानी संदेह में हैं सो श्रद्धा हैं और शंकर ज्ञान हैं , सो विश्वास हैं और गीता में भी कहा --श्रद्धावान लभते ज्ञानम् । अतः मेरा कहना है कि जो सच और सरल है उसे न श्रद्धा चाहिए न विश्वास । उसका समाज में समायोजन सरल तो है और सर्वोत्तम भी परन्तु सच और सरल होना ही कठिन है ।
समायोजन में एक हम हैं और एक समाज , परिवार में रहने वाला दूसरा ब्यख्ति है , यानि कि हम दो हैं और यह देखना पड़ता है कि हम जो कह रहें हैं अथवा कहना चाहते हैं वह दूसरे को स्वीकार होगा या नहीं । अब यदि आप सच बोलना चाहते हैं तो वह सच अगले को स्वीकार्य होगा कि नहीं । अगर स्वीकृति की संभावना क्षीण है तो तत्काल समायोजन हेतु आप वह कहें गे जो हो सकता है सत्य न हो । यदि आपने सत्य से अन्यथा कुछ कहा तो आज नहीं तो कल संदेह पैदा हो जाएगा और तब समायोजन में कठिनाई शुरू हो जाएगी । फ़िर शुरू हो जाएगा संदेह और विश्वास का खेल और समायोजन सम्बन्धी कठिनाइयाँ । झूंठ बोलने का दौर , धोका देने का प्रयास और कलह का आयोजन । एक उदहारण , -बेटा देर से आया स्कूल से या बाप ऑफिस से , बेटे ने कहा क्लास्सेस देर तक चले परन्तु वह गया था सिनेमा ; अगर वह सच बताता तो शायद उसे डांट , मार पड़ती , तो उसने झूंठ . बोलकर समायोजन कर लिया । संदेह पैदा हो गया । ऐसे ही बाप के मामले में समझ लें , जिसने पत्नी से कहा , आज ऑफिस में देर तक काम हुआ परन्तु गया था डिनर को , किसी के साथ । आगे सब मामले में समझ लें कैसे चल रहा है झूंठ का ब्यापार । यदि आप बेटे को सिनेमा जाना स्वीकार करते तो वह झूंठ भी न बोलता ।परन्तु ऐसा संभव नही है ,है कि, उसे प्यार से समझा सकें कि बेटा जब सिनेमा जाना हो तो जा सकते हो पर अनुमति लेकर जाओ , मुझसे नहीं तो मांसे ही बता दो । परन्तु झूंठ बोलना तो सिनेमा देखने से बहुत ज्यादा ख़राब और गन्दा काम हुआ । देर लगेगी पर सुधार भी होगा । बच्चाचोरी न करे इसके लिए हमें भी उससे कोई चोरी और छुपा कर काम कराने से बचाना होगा । सत्यता ही निष्ठां की आधारशिला है । आप /हम सच हो गए तो दूसरे को सिखा सकेंगे ।
विस्तार में क्या जाना , सीधा सरल और सत्य ब्यवहार ही समायोजन में सफल है शत प्रतिशत परन्तु है भी बहुत कठिन । परन्तु अभ्यास से कुछ भी असंभव नहीं और थोड़े ही अभ्यास के बाद इतना सरल हो जाता है कि स्वभाव ही बन जाताहै । करत करत अभ्यास ते जड़ मति होत सुजान । चलिए भगवन का नाम लेकर शुरू करें .
1 comment:
The article goes with an emphasis on sticking to the truth by all means and never to honour deviations.The word truth here stands for an incident or an action as perceived by an individual or as it should be perceived by all?The article is really an envelop of spirituality having within the solved problems of tangible world Dr Anil Mishra
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