श्री राम ने भरत से कहा , " संत और असंत का कार्य उसी तरह है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन ; कुल्हाड़ी तो चंदन को काटती है परन्तु चंदन उसे सुगन्धित कर देता है ; परिणाम दोनों को , मिला कि चंदन तो दुनिया को प्यारा हो गया और देवताओं के मस्तक पर लगाया गया परन्तु कुल्हाड़ी को आग में डाल कर लाल होने पर उसका मुहं हथौड़े से खूब पीटा गया । सज्जन विषयों से दूर, शील युक्त , सद्गुणी हैं । दूसरों के दुःख से दुखी , सुख से सुखी हो जातें हैं । सब के मित्र हैं , कोई अमित्र नहीं । संत अभिमान रहित , वैरागी , लोभ , क्रोध , भय रहित हैं । कोमल चित्त , दिनों पर दया करने वाले , मन , वचन तथा कर्म से ईश्वर भक्त होते हैं । सब का सम्मान करते हैं परन्तु ख़ुद सम्मान नहीं चाहते । कामना - रहित , शांत , विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं । शीतल स्वभाव , सरल ब्यवहार , मैत्री पूर्ण आचरण , विद्वानों के प्रति आदर , धर्म युक्त हैं । मन का निग्रह , इन्द्रियों का सयंम , नियम ( शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय , ईश्वर प्रणिधान ) और नीति से नहीं हटते । कठोर वचन नहीं बोलते , उनको निंदा स्तुति बराबर ही है । वे तो केवल ईश्वर से प्रेम करते हैं ।
अब असज्जन की बात सुनो -भूल कर भी इनका साथ मत करना । जैसे हरहाई गाय (जिसके गले में लकड़ी बंधी रहती है ) न तो ख़ुद चरती है , न दूसरे गाय को चरने देती है उसी तरह ऐ लोग खुद को और अपने साथी को भी बर्बाद कर देते हैं और दुःख ही पहुंचाते हैं । खल संतापी होते हैं दूसरे की सम्पत्ति देख कर जल जाते हैं । दूसरों की निंदा सुनकर जैसे इन्हें मुफ्त में खजाना मिल गया हो । काम क्रोध मद लोभ परायण तथा निर्दयता , कपट , कुटिलता और पापों के घर हैं । चाहे आप उनका हित करें या अनहित दोनों स्थितियों में अकारण आप से वैर ही करेंगे । झूंठ ही उनका नाश्ता , झूंठ ही भोजन और झूंठ ही उनका लेन-देन (दिन भर का व्यापार ) है । मोर बोलता तो मीठा है लेकिन खाता सांप है वैसे ही इनकी बात मधुर , काम कसैला है । इनका ध्यान सदा , पर धन , पर पत्नी , परद्रोह , पर निंदा में ही लगा रहता है । वस्तुतः ऐ पामर (नीच ) पापमय नर शरीर धारी राक्षस ही हैं । ऐ लोभ ही ओढ़ते बिछाते हैं । आहार और मैथुन यही इनका जीवन है , ऐ तो यम् को भी नहीं डरते । दूसरे की बड़ाई सुनकर इन्हें जूडी आने लगाती है , दूसरे की विपत्ति सुनकर मानो राज्य पा गए । ऐ स्वार्थी , परिवार विरोधी ,लम्पट , कामी , क्रोधी , अति लोभी होतें है । माता - पिता , गुरु विद्वान को नहीं मानते । मोह वश द्रोह और साथी को भी उसी रास्ते पर लाकर नष्ट कर देते हैं । इन्हें अच्छा साथ , सत्संग , हरि कथा नहीं भाती । ऐ अवगुणों के सागर , मंदमति , कामी , वेदों का मजाक उडाने वाले , दूसरों के धन पर पलने वाले , दम्भी और कपटी लोग हैं परन्तु अपना वेश सुंदर बनाये फिरते हैं .
हे भरत सुनो , - सभी वेद पुराण का निर्णय यही है कि दूसरे की भलाई और मदद से अच्छा और कोई धर्म नहीं है , यही मैंने तुमसे कहा , यही विद्वान लोग भी जानते है । मनुष्य का शरीर धारण कर जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाते हैं वही पापी और अधम हैं । " (राम चरित मानस - उत्तर कांड - ३६ से ४१ दोहों के मध्य मूल पाठ के लिए देखें ) .
अब असज्जन की बात सुनो -भूल कर भी इनका साथ मत करना । जैसे हरहाई गाय (जिसके गले में लकड़ी बंधी रहती है ) न तो ख़ुद चरती है , न दूसरे गाय को चरने देती है उसी तरह ऐ लोग खुद को और अपने साथी को भी बर्बाद कर देते हैं और दुःख ही पहुंचाते हैं । खल संतापी होते हैं दूसरे की सम्पत्ति देख कर जल जाते हैं । दूसरों की निंदा सुनकर जैसे इन्हें मुफ्त में खजाना मिल गया हो । काम क्रोध मद लोभ परायण तथा निर्दयता , कपट , कुटिलता और पापों के घर हैं । चाहे आप उनका हित करें या अनहित दोनों स्थितियों में अकारण आप से वैर ही करेंगे । झूंठ ही उनका नाश्ता , झूंठ ही भोजन और झूंठ ही उनका लेन-देन (दिन भर का व्यापार ) है । मोर बोलता तो मीठा है लेकिन खाता सांप है वैसे ही इनकी बात मधुर , काम कसैला है । इनका ध्यान सदा , पर धन , पर पत्नी , परद्रोह , पर निंदा में ही लगा रहता है । वस्तुतः ऐ पामर (नीच ) पापमय नर शरीर धारी राक्षस ही हैं । ऐ लोभ ही ओढ़ते बिछाते हैं । आहार और मैथुन यही इनका जीवन है , ऐ तो यम् को भी नहीं डरते । दूसरे की बड़ाई सुनकर इन्हें जूडी आने लगाती है , दूसरे की विपत्ति सुनकर मानो राज्य पा गए । ऐ स्वार्थी , परिवार विरोधी ,लम्पट , कामी , क्रोधी , अति लोभी होतें है । माता - पिता , गुरु विद्वान को नहीं मानते । मोह वश द्रोह और साथी को भी उसी रास्ते पर लाकर नष्ट कर देते हैं । इन्हें अच्छा साथ , सत्संग , हरि कथा नहीं भाती । ऐ अवगुणों के सागर , मंदमति , कामी , वेदों का मजाक उडाने वाले , दूसरों के धन पर पलने वाले , दम्भी और कपटी लोग हैं परन्तु अपना वेश सुंदर बनाये फिरते हैं .
हे भरत सुनो , - सभी वेद पुराण का निर्णय यही है कि दूसरे की भलाई और मदद से अच्छा और कोई धर्म नहीं है , यही मैंने तुमसे कहा , यही विद्वान लोग भी जानते है । मनुष्य का शरीर धारण कर जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाते हैं वही पापी और अधम हैं । " (राम चरित मानस - उत्तर कांड - ३६ से ४१ दोहों के मध्य मूल पाठ के लिए देखें ) .
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