Monday, January 5, 2009

मन और उसकी दुनियाँ

एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा , क्या भूत प्रेत सच में होतें हैं , मैंने जो वार्ता की वो बताता हूँ गीता में कहा है जो सत् है उसका अभाव नहीं है और जो असत है वह तो हो ही नहीं सकता अतः इस असत की बात ही नहीं करना जो सत् है उसके दो आयाम हैं ; एक सत् और दूसरा सत् लगता हुआ परन्तु जो सत् लगता हुआ है वह असत नही है , वह सत् काही दूसरा आयाम है किसी पश्चिमी विचारक ने इसे सत्य और सत्य का कहा है अब आदमी तो सच है तो उसका स्वप्न भी सच ही होगा आदमी है तो उसीसे उसकी बनी हुई फोटो या चित्र भी सच ही होगा अब आदमी भूत देखता है और सच बोलता है कि उसने देखा तो भूत सच ही होगा कम से कम उसके लिए और यदि उसका कहना सच है तो एक एक दिन भूत हमको भी दिख सकता है एक दार्शनिक देकार्त की माने तो सारी दुनियाँ हमारेr दिमाक सेa ही निकलीh है , baaa तो कुछ है ही नही यदि कोई देखने वाला है तो बहार जो दिखता है वो है , नही तो नही यह बात पूरी तो सही नही है परन्तु अर्ध सत्य है क्योंकि जब ब्यक्ति नहीं है तो निश्चित रूप से उसके लिए दुनियाँ नहीं होती परन्तु और के लिए होती है
बस्तुतः यह सब मन का खेल है और उसकी क्षमता भी जब मन रिनात्मक भूमिका में हो जिसे मनो विज्ञानं मानसिक अस्वस्थ्यता कहता है तो उसे भूत , हिस्टीरिया ,पागलपन , यौन संबंधी असामान्य ब्यवहार , बलात संग अदि अदि के लक्षण पैदा हो जाते हैं इसी तरह जब मन धनात्मक भूमिका में होता है , तो लोगों को भगवान , देवता देवी के दर्शन होने लगते हैं गीता में कृष्ण ने कहा ही है , "तुम मेरा जहाँ जहाँ और जिस जिस रूप में स्मरण करोगे , मै वहां वहां उसी रूप में तुम्हे मिलूँगा , यह निश्चित जान लो मेरी अपनी समझ और अनुभव से यही कहना है कि हमारा मन जहाँ जहाँ दौरता विचार और विचरण करता है वहीँ स्थिर होता जाताहै और एक समाया ऐसा जाता है जब उसको वही प्राप्त हो जाता है अथवा वह ब्यख्ति उसको प्राप्त हो जाता है
वेद के ब्राह्मण का वचन है , " यन मनसा ध्यायति तद वाचा वदति , यद् वाचा वदति तत् कर्मणा करोति , यत् कर्मणा करोति , तदभि संपद्यते " ब्यख्तित्व निर्माण का यही परम चरम सूत्र है अच्छा सोचो , अच्छा करो और अच्छा बन जाओ इसे ही संस्कारों का बनना और बनाना कहतें हैं एक बार जो संस्कार बन गए वो स्थिर हो जाने पर , चंदन विष ब्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग , की अवस्था में जाता है परन्तु जिसके संस्कार नहीं पके होते खाश कर किशोरावस्था में तो उन पर दूसरी उक्ति लागु होने लगाती है , धूम कुसंगति कारिख होई
सो जिसका भूत और भगवान बन चुका वो तो वही रहेगा परन्तु अभी जिसका बनने को है वहां प्रयास होना चाहिए अधपके लोग भी टर्न ले सकते है , जब से जागो तभी सबेरा अच्छे और बुरे काम, अच्छी और बुरी जिंदगी के लिए कोई देर सबेर नही है . nothing to us falls early or too late , we are the makers of our own fate . -- Samual Smiles .महाकवि होमर ने ९० वर्ष की उम्र में विना चश्में के अपना महाकाव्य लिखा था , तुलसी दस जी ने ७० की उम्र में रामचरित मानस और शंकराचार्य ने ३५ में वेदांत निरूपण किया था
किं बहुना , इस संसार में सब सही है , सही तो सही है ही जो ग़लत है वह भी सही ही है , चुनाव आपके हाथ में है गोस्वामी तुलसी कही कही जे कहते हैं , " केशव kahi na jay

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