महर्षि पतंजलि योग विज्ञानं के परम अधिकारी हैं । उनके अनुसार -- योग का प्रारम्भ अनुशासन से होता है । अनुशासन का अर्थ है स्वयं अपने ऊपर संयम द्वारा शरीर तथा मन पर काबू पाना । **अथ योगानुशासनम् /१ * हमारे मन/चित्त में विचार की लहरें बनती रहती हैं , उसे चित्त वृत्ति कहा है , थाट वेव । **योगः चित्तवृत्ति निरोधः */२ ऐ चित्तवृत्तियाँ पॉँच है -- **प्रमाण , विपर्यय , विकल्प , निद्रा और स्मृति */३ प्रत्येक वृत्ति दो प्रकार की है , इस तरह दस वृत्तियाँ हुईं । यथा - प्रमाण धनात्मक और प्रमाण रिनात्मक । उदहारण जो प्रमाण कहें , ईश्वर है , धनात्मक हुआ और ईश्वर नहीं है , ऐसा रिनात्मक । इन्ही पाँचों में ही मन हमेशा जागते सोते लगा रहता है । इन्द्रियां मन के मार्ग हैं , इन्हीं से वह बहार निकल कर दुनिया के विषयों में आसक्त हुआ रहता है । यदि चित्त को इन वृत्तियों में जाने से रोक दिया जाए तो यह चित्त स्थिर हो जाता है , अंतर्मुखी हो जाता है और अपने वास्तविक स्वरुप को प्राप्त कर लेता है , यह समाधि है । परन्तु यह सरल नही है ।
पहला काम है कि धनात्मक वृत्ति से रिनात्मक को हटाया जाय , क्यों कि चित्त एकदम खाली नहीं होसकता सो बुरे को अच्छे से हटाया जाय ,इसके लिए **अच्छे का लगातार , अनवरत अभ्यास और बुरे का त्याग (वैराग्य )करना होगा । पैर में एक कांटा लग जाय तो दूसरे कांटे से ही निकालना ऐसा समझें और फ़िर दोनों को ही फेक दें ।
अतः सदगुणों को दुर्गुणों से हटाना चित्त को शुद्ध करने का प्रथम और प्रारंभिक पद /पायदान है । यद्यपि योग मार्ग में यह बहुत प्रारंभिक प्रयोग है परन्तु इतना भी यदि सध जाए तो कम से कम हमारा जीवन रहने लायक हो जाए । योग तो निःसंदेह बड़ी बात है , परन्तु अच्छी शुरुआत हो तो हौसला आफजाई कर सकते हैं । मंजिल मिले न मिले , सफर तो होगा और इत्मिनान यह कि सफर सही दिशा में है । सही मार्ग पर चलना , मंजिल पाने से कम क्या है , इरादा तो नेक है और भरोसा ए कि बहुतों को मिली ही है । प्रयास महत्वपूर्ण है , परिणाम नहीं । **इट इज नाट द रिजल्ट बट इफर्ट दैट काउ न्ट्स । चलिए , अच्छी बातों , आदतों , ब्यवहार और वृत्तियों से खराब को बदलने , हटाने और स्थानांतरित कराने का प्रयास शुरू करें । अभ्यास और वैराग्य से । अच्छे का अभ्यास और ख़राब का त्याग ।
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