उस (परमात्मा )ने इच्छा की ,मै प्रकट होऊं ,बहुत हो जाऊँ । उसने अपने संकल्प का विस्तार किया और जो कुछ देखने समझाने में आता है ,समस्त जगत की रचना की और अनंतर उसी में स्वयं भी प्रविष्ट हो गया । मूर्त और अमूर्त ,न बताने योग्य ,आश्रयवान तथा आश्रय रहित .चेतन और जड़ ,सत्य और अनृत भी वह (परमात्मा )हो गया । जो कुछ भी हमें और हमारी इन्द्रिओंसे दिखता और अनुभव में आता है ,वह सब सत्य ही है , ऐसा ज्ञानीजन कहतें हैं । देखिये - "वो कहते हैं , जो कुछ है खुदा वो नहीं । मै कहता हूँ , खुदा के सिवा है ही क्या ? "--- फिराक गोरखपुरी ।
तैतारियोपानिषद के अनुवाक ६ पर आधारित
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