Friday, January 30, 2009

अहिंसा

मोहन दास कर्म चंद गाँधी (१८६९ -१९४८ ) ,जिन्हें अब सारी दुनिया में एक ब्यख्ति नहीं विचार के रूप में स्वीकार कर लिया गया है , अहिंसा के रूप में , शान्ति के अग्रदूत के रूप में , भारत में पहले ही महात्मा और राष्ट्रपिता के विशेषण से अलंकृत हो चुके थे । ( कुछ बहुत संकीर्ण और कम समझ वाले उन्हें नोबेल पुरस्कार न देने की शिकायत करते फिरते हैं जिन्हें यह पता नहीं कि यदि किंचित उन्हें नोबेल मिला होता तो वह भी धन्य हो जाता , दुर्भाग्य से छोटा रह गया । कभी देश से लोग जाने जाते हैं और कभी लोगों से देश , गंगा , हिमालय , राम , कृष्ण , बुद्ध और गाँधी से भारत देश दुनिया में प्रसिद्ध है । इसी तरह सारी दुनिया में राम मर्यादा के , लिए कृष्ण न्याय के लिए , बुद्ध करुणा के लिए और गाँधी अहिंसा के लिए जाने जाते हैं , जैसे सुकरात न्याय के लिए , जीसस प्रेम केलिए और मुहम्मद साहब भाईचारे के लिए । इसी तरह से नोबेल गाँधी को दिया गया होता तो गाँधी को भी दिया गया था ऐसा* जाना जाता । ) इसीसे कहा आज की संकट ग्रस्त दुनिया में गाँधी ब्यक्ति नही विचार बन गए हैं । तभी तो दुनिया में कहीं भी अहिंसा और शान्ति की लडाई लड़ने वाला वहां का और उस देश का गाँधी कहा जाता है ।
बस्तुतः गाँधी भारत की संस्कृति , दर्शन और नैतिक परम्परा के ही अग्रदूत और दुनिया में इन्हीं परम्पराओं के राजदूत हैं । उन्हों ने गीता और रामचरित मानस पढ़ा था और यही दोनों ग्रन्थ भारतीय दर्शन के प्रतिनिधि सार तत्व हैं । राम चरित मानस से - परम धरम श्रुति विदित अहिंसा * और राम अपने दुश्मन के प्रति क्या विचार रखते है जब युद्ध के पहले अंगद को दूत बनाकर रावण के पास भेजते हैं - " तुमहिं बुझाइ बहुत का कहऊँ । परम चतुर सब जानत अहऊँ ॥ मोर काज तासु हित होई । रिपु सन करेहु बतकही सोई ॥ अर्थात मेरा काम भी हो और शत्रु का हित भी ,यानि यदि वह सीता को लौटा दे तो युद्ध टल जाय। न्यूटन ने कहा है , -* जब हम अपने पुरखों के कन्धों पर बैठ जाते हैं तो ज्यादा दूर तक देख लेते हैं । यही बात विनोबा भावे गाँधी के प्रति उद्धृत करते हुए कहते हैं , * गाँधी भारतीय संस्कृत और सभ्यता के डारविनियन विकास पुरूष हैं । गाँधी ने ख़ुद कहा , उनका कोई वाद नहीं है ,उन्हों ने तो जो अपने धर्म से सीखा और धर्मों से मूल्यांकन कर देखा तो बात साफ हो गई कि सारी दुनिया में आदमी का एक ही धर्म है , " वैष्णव जन तो जेने कहिये जो पीर परायी जाणे रे ** यानि कि किसी के कष्ट को अपना कष्ट समझना। किसी को मन वाणी और कर्म से हानि न पहुंचाना , अर्थात हिंसा न करना । एक बार अफ्रीका में जब उनके विरोधियों ने उन पर आक्रमण किया और केश चला तो गाँधी जी ने उन सब को माफ़ करने को कोर्ट से कहा । एक अंग्रेज ने जब उनसे पूछां इतनी सहनशीलता कहाँ से सीखी तो गाँधी ने तपाक से कहा , बाईबिल से , आपके ही धर्म से , जो लिखा है कि यदि कोई एक थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो । बाद में तो अंग्रेज गाँधी को भारत में अपना शत्रु होने के साथ साथ विश्वशनीय परम मित्र भी मानने लगे थे।
आज गाँधी सम्पूर्ण विश्व में अति प्रासंगिक हो गए हैं और इस बात को विश्व के सभी नेता स्वीकारभी करते हैं । लोहिया ने कहा है , * आज विश्व में दो महा शक्तियाँ हैं - एक परमाणु और दूसरा गाँधी और यदि धरती पर आदमी को जीते रहना है तो गाँधी को जिताना होगा वरना परमाणु जीता तो आदमी नहीं रहेगा । गाँधी आदमी के अस्तित्व हेतु एक मात्र विकल्प हैं । **
ब्यक्तिगत जीवन में भी गाँधी आदर्श हैं । उनके एकादश व्रतों का पालन कर हम भी सुख शान्ति का जीवन जी सकते हैं । उनका एक उदहारण देखें , - उनके देश में गरीबी थी , हटा न सके तो व्रत ले लिया जब तक गरीबी है , हम भी गरीबों की तरह जीवन जियेंगे , और एक ही धोती पहनते रहे , गरीबों की भांति रहे। गाँधी की कथा अनन्त और गाँधी अनन्त , सो उनके एकादश व्रतों के साथ विराम करते हैं । १- अहिंसा २ -सत्य ३ - अस्तेय ४ - ब्रह्मचर्य ५ -असंग्रह ६ -शरीर श्रम ७ - अस्वाद ८ - सर्वत्र भय वर्जन ९ - सर्व धर्म समानत्व १० - स्वदेशी ११ - स्पर्श भावना ** विनम्र व्रत निष्ठां से ऐ एकादस सेव्य हैं । उनका कहना है , पृथ्वी पर सत्य को पाना है तो अहिंसा को साधो । हिंसा करने वाला जो भी हो ,आदमी नहीं हो सकता । अहिंसा परमो धर्मः ** और पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ( परपीड़ा सबसे बड़ा पाप ) ।

Thursday, January 29, 2009

अतिवाद और मध्यम मार्ग

अतिवाद का अंत अति से और शीघ्र हो जाता है । मध्यम गति से दूर तक और लंबे समय तक चला जा सकता है । अतिवाद , अहंकार का सूचक है । रावण , कंस , बलि , हिटलर और नेपोलियन आदि आदि उदहारण हैं , अतिवाद और अहंकार के । लिंकन कहते हैं ,- हर खलनायक के लिए एक नायक पैदा हो जाता है । तभी तो रावण जैसे स्थापित शक्तिशाली राजा को निर्वासित राजकुमार राम ने धुल चटा दिया । ऐसी ही कहानी सभी अतिवादियों और मुर्ख अभिमानियों की है । विश्व इतहास इसका गवाह है । हिंसा से बचाव में प्रतिहिंसा सदैव मानक नैतिकता रही है । हीगल और मार्क्स भी एक अतिवाद के बाद दूसरे अतिवाद का समर्थन करते हैं । भारत में धर्म के कमजोर होने पर दैवी शक्ति परम पुरूष के रूप में अवतरित होकर संतुलन कायम करती है । क्रिस्चियन , यहूदी और मुस्लिम धर्म में भी समाज में नैतिकता की स्थापना हेतु पैगम्बर आए हैं । न्याय की स्थापना के लिए अन्तिम विकल्प के रूप में हिंसा मान्य है । इसे हमारे यहाँ धर्म युद्ध और कुरान में जेहाद कहाहै । कभी कभी यह समझना कठिन हो जाता है कि कौन पक्ष न्याय का पक्ष है । महाभारत में कहा है , - यतो धर्मः ततो जयः ** धर्म का पक्ष ही जीतता है , कौरव जीतते तो इतिहास दूसरा होता । परन्तु ऐसा हुआ नहीं , पहले से भी लोगों का यही कहना था कि कौरव अन्याई थे । यहाँ तक कि कौरओं की तरफ़ से लड़ने वाले भीष्म और द्रोणाचार्य भी इस मत के थे कि कौरव अन्याय कि ओर थे । हमारे यहाँ , - सत्यमेव जयते ** सूत्र सिद्धांत है । मुहम्मद साहब भी यही कहते हैं , - जेहाद न्याय युक्त ही होना चाहिए तभी जीत होगी । जेहाद का अर्थ ही है - धर्म और न्याय हेतु युद्ध । हीगल भी यही कहता है , - जो पक्ष युद्ध में जीत जाय वही न्याई था । विश्व इतिहास में जितने भी युद्ध लादे गए उसमे लादने वाला आक्रमणकारी अन्यायी ही ठहराया गया है । और एक मजे कि बात कि अपनी सुरक्षा में युद्ध करने वाला वाह्य दृष्टि से विपन्न , साधनहीन और कमजोर ही दिखा परन्तु जीत उसी की हुई । खैर गाँधी ने तो कमाल ही कर दिया , " साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल , दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल "* अज के नए विश्व में एक नायब तरीका ।
इसलिए बुद्ध ने कहा अतिवादी न बनो , मध्यम मार्ग से चलो । जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा ही समझना होगा । यदि अतिवादी बनोगे तो दूसरे अतिवाद का शिकार होना होगा । यथा , -पहले मानव नंगा था ,कपड़े खोजे गए फ़िर खूब जम कर कपड़े पहने गए , कोई अंग बाहर न रहा , सभ्यता कि अति हो गई , पश्चिम में लोग ऊबे और फ़िर से नंगे होनेलगे ,कहिये पूरे विश्व में नंगे होने की की होड़ लग गई है , वे लोग आगे आगे और हम भी पीछे भाग रहें हैं । मैं नाचने गाने वालों की बात नहीं करता , उनका तो पैसा कमाने का पेशा है परन्तु सभ्य समाज के लोगों को इतना कपड़ा तो पहनना ही चाहिए कि शरीर के उतने अंग ढंके रहें जिससे गर्मी सर्दी से बचाव हो । खेद है कि सभी में तो नही लेकिन कुछ फैशन परस्त ऐसे कपड़े ही पहनते हैं जिससे वही अंग ध्यान में आयें जिन्हें ढंकना चाहिए । हम तथाकथित सभ्य होंगे पर निश्चित रूप से अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं । स्वतंत्रता के नाम पर अति नहीं । ऐसे ही जीवन के हर क्षेत्र में मध्यम मार्ग का वरण अपेक्षित है अन्यथा एक अति से दूसरी अति का उद्भव होगा जो विनाशकारी होगा । अंग्रेजी में भी माडरेट होने को सभ्य और सुसंस्कृत का मेल बताया गया है । हम एडवांस तो हों फैशनबल नहीं , माडरेट हों पर एकदम माडर्न नहीं । हमारी सम्पूर्ण विश्व सभ्यता , संस्कृति में जो पुराना है , उसमें काफी कुछ सँजोकर , सभांल कर रखने की आवश्यकता है , जीवन के हर क्षेत्र में । मैंने एक दो का उदहारण दिया , ऐसे ही हर मामले में समझें । अति से बचें , मध्यम मार्ग अपनाएं । अपने को उन्नत करें परन्तु अपनी संस्कृति का ध्यान रखें । ऐसा न हो आदमी फ़िर से आदम ( पुरानी असभ्यता के ज़माने का ) हो जाय ।

Tuesday, January 27, 2009

LEARNING OF AESTHETIC SENSE

It is said , man is imitation of God on earth . so man has three aspects of God in him - 1 - Power of reason ( resulting in science ) ; 2 - Moral sense ( good and bad ; right and wrong ) ; 3- Aesthetic sense ( appreciation of beauty , creation of imitation of real beauty through art , literature , music and other various arts . moreover the creation of imitation of his own self to keep his progeny on .)
This aesthetic sense is an Instinct in man , a biological property and a Psychological need ( a hunger like other i.e. food and water ) . he likes what is good and that attracts him . this is called love . love , the word is very common and extraordinarily complicated to define . common , because each and every man has it as an instinct , less or more ,as a common human trait or property. complicated , because has numerous verities ; viz. love as passion (sexual love ) parental love ( of father and mother to their children and of children to parents as obligation and regard ) , friendly love , among equals in same sex and in the opposite , love to all that is in the nature , love to various arts and expressions including many kinds of prose and poetry .
These all varieties are in different measures in different individual and of one or more than one or many. Ravindra Nath Tagore was a versatile genius in aesthetic field , a writer , painter , musician , dancer , dramatist and what not .
The love as passion is common and instinctual and necessary for proper physical and mental growth. one should enjoy and use it in moderation under strict social and moral norms set in every society and culture differing from place to place and nation to nation . this is also called love of relation . intrinsically , in this love of relation if you are committed to one ; to have relation with other is immoral and not real and true love . yes ! you can have Platonic love ( of love , friendship and spiritual but not sexual.) moreover, sexual love is purely biological and need no change . this is on body level and that is all that you can have any where else . on psychological and mental level you are free to love each and all of your choice . you are free to love any thing or person even without any response . this is your choice and the loving ability is entirely within you . if you get the response it would be mutual love.
See you love any one , this is your choice but any one loves you is not your choice . I call it God's choice and if you are loved by someone , say , you are lucky . again love as passion is good and necessary but not all good and all in life . there are more and better forms of love ,said above. love as passion is a clue to advance your love for other things and other people . this is known as Sublimation of love viz. love to all and hate for none , love of nature , art etc , mentioned above. love and the power of love is with in you , increase it , span it , spread it and the whole universe is the scope .
True and pure love does not harm any , a flower or even a leaf . true love make no demands , it only gives . it sacrifices and never wants to win . true love is always a looser in worldly sense , it only exacts the pleasure of love , unconditional , unpaid . love is one of three blessings of God to man , the ANAND OF SAT AND CHIT ,that is SATCHITANAND , (TRUTH ,LIVE and BLISS ) this word when personified is Sachchidanand . love as passion is of that , an animal and love to all of universal nature is divine in man . so we should try to be moderate and moral in passion and see that it does not grow into lust because lust checks your growth as a man . love is a great gift of God to man and to our discredit to misuse it misunderstand it . true love is divine and all who grew great they were the man with love .

Monday, January 26, 2009

WHAT LORD KRISHNA SAYS .

In Gita the main question is किं कर्मं किं अकर्मम इति , कवयः अपि अत्र मोहिता । even wise are confused to decide the right action . Lord Krishna has given very clear way to solve the issue . He says , " you are not the doer " . you are the part of the whole . this Whole is an organism , living and great rather greatest organism . you are the part of this whole , very very small as a hair on the body but this hair has its root in the body and full conscious with what is going in or with body . ( this is an example . a hint to let you understand and imagine at the vast scale ) . this hair stands up in fear , the fear originates in the mind but all the limbs of the body come up to their desired readiness and expected action . this is the role of all the living and nonliving things in this universe or say creation . all the limbs have come up in their expected action and all are doers within one and not separately . this is what we are doing . Lord says ,- be with what is happening . be with , your abilities (really not your but what you share with the whole ). be with , what is expected from you . even if you do not want , you will be dragged into action . this world is not , "is" , it is " Being ". this world does not exist , it is existing , happening , moving and you are also moving and happening . Lord says , - happen with this , you can not say , -you will not . you are the part , not the whole but you have your role to play and none else in your own position as a nut in a machine to work .
Here there is no question of fate or action or Gods help . every thing is ok , going on and going on well , you are the part of this , "Going on ". if you say ,you take help of someone , that helps you is a part of that whole that you are too of . if you pray to GOD you pray to your WHOLE SELF and none else .
All that has been taught in Gita is to be STABLE in MIND (STITHI PRAGYA ) . let the plasure and pain come in your life , be with it , bear with it . do not dance in happiness nor lament in grief . be stable , face all that comes with your ability in particular circumstances . Lord himself does nothing and askes Arjun to do what is the demand of the situation . He says , - justice has been denied to you , Pandwas , and there is no way out to get your share , all the peaceful efforts faild , no alternative is being left , it does not suits you to go back from war as the last and the only alternative , so fight . those things have happened that had to happen in circumstances and I clearly see that war is inevitable . I see that Kaurwas are all dead because of their ill deeds . there is no way out Arjun ! so fight .
see ! you are not the doer . you are the part of the Whole . be with it , act and God is also with you , perhaps your mind , take its advice and act , you are not the doer . face what comes in , see the situation , take the decisions and go on with them with all that mental and physical ability you have and act in the position , you are put on and kept in . pray to God and act . you are not your choice .you are the choice of the WHOLE . be with IT and act. your mission is not a single one ,nor small ,your action is the action in harmoney with the WHOLE and the Universal Action . THE smallest ant and the atom ,elephant and the mountain and ocean all are not equal but equally important. therefore work incessantly , where you are.

Sunday, January 25, 2009

सत्संग चलता फिरता तीर्थराज

'' ए मैन इज नोंन बाई कम्पिनी ही कीप्स '' . अच्छे लोगों का साथ तीन प्रकार से होता है ; एक तो उन लोगों से जो हमारे समकालीन हैं ,हमसे  हर प्रकार से उन्नत हैं ; दूसरे  जो आज नहीं हैं पर उन्होंने अपनी कहानी लिखी है जैसे बाबरनामा , गाँधी जी की जीवनी , बड़े लोगों की आत्मकथाएं । तीसरे जिन लेखकों , कवियों ने महान लोगों के बारे में लिखा है । कहा  गया है - ''बड़े होने के लिए या तो कुछ बड़ा करो या बड़े लोगों पर कुछ लिखो ।'' इन बड़े लेखक कवियों का साथ भी उनके कृतियों के माध्यम से कर सकते हैं । " सत्संगति किं न करोति पुंसाम " = सत्संग से क्या नहीं होसकता है , भला ??... तुलसी दासने राम चरित मानस में सत्संग को चलता फिरता तीर्थ राज कहा है । इसी की चर्चा करते हैं ।
'' जो मनुष्य अच्छे लोगों का साथ करता है उसे धर्म , अर्थ , कम और मोक्ष यहीं मिल जाते हैं । इस संत रूपी तीर्थ राज में स्नान करने का फल तुंरत ही मिल जाता है , कौवे कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस , अचरज न करें ,बाल्मिक , नारद , अगस्त्य की कथा ऐसे ही है । कोई भी व्यक्ति जिसने , जहाँ भी और जैसे भी , बुद्धि , कीर्ति , सफलता , भौतिक सम्पदा ऐश्वर्य तथा भलाई , अच्छाई प्राप्त की है ; उसे सत्संग का प्रभाव ही जानो क्योंकि लौकिक और वैदिक उपायों में इसके अलावां और कोई तरकीब नहीं है । बिना सत्संग विवेक नहीं मिलता। सत्संग आनंद तथा कल्याण का मूल है । सठ सुधर जातें हैं जैसे लोहा पारस छू कर सोना बन जाता है । संत असतं मै दोनों की वंदना करता हूँ क्योंकि संत बिछुड़ने पर और असतं मिलने पर दुःख देते हैं ।
गुण और अवगुण सबको पता हैं , जिसको जो भाता है उसको वही अच्छा लगता है । भला भलाई  को ; नीच नीचता को चुनता है ; अमृत की सराहना अमर करने में तो विष की सराहना मारने में ही है .
 सुख- दुःख , पाप- पुण्य , दिन- रात , साधु- असाधु , दानव- देव , अमृत- विष , माया -ब्रह्म , धनी- गरीब , काशी- मगहर , गंगा- कर्मनाशा , पृथ्वी- आकाश , जल- थल , दयालु -  हत्यारा  , ईश्वर- जीव , अनुराग- विराग , जड़- चेतन , गुण- दोष सब कुछ प्र्भु /प्रकृति ने बनाये हैं ; संत हंसों की तरह गुण (दूध ) ग्रहण कर जल (दोष ) को अलग कर लेते हैं । बुरा वेश रहने पर भी साधु का सम्मान ही होता है जैसे हनुमान का । हवा के कुसंग से धूम कालिख और पानी का संग होने से स्याही बन कर पुराण लिखती है । ग्रह , औषधि , जल , वायु और वस्त्र , अच्छा बुरा साथ पाकर उसी प्रकार के गुण दोष युक्त हो जाते हैं । देखिये , माह के दोनों पक्षों में प्रकाश और अँधेरा बराबर ही होता है परन्तु एक में चंद्रमा घटता है और दूसरे में बढ़ता है सो एक को उंजेला (बढ़ाने वाले को ) दूसरे को (घटाने वाले को ) अँधेरा पाख कहा गया । > (तुलसी के मानस से, बाल कांड  )

Saturday, January 24, 2009

राम चरित मानस में सज्जन और दुर्जन

  श्री राम ने भरत  से कहा , " संत और असंत का कार्य उसी तरह है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन ; कुल्हाड़ी तो चंदन को काटती है परन्तु चंदन उसे सुगन्धित कर देता है ; परिणाम दोनों को , मिला कि चंदन तो दुनिया को प्यारा हो गया और देवताओं के मस्तक पर लगाया गया परन्तु कुल्हाड़ी को आग में डाल कर लाल होने पर उसका मुहं हथौड़े से खूब पीटा गया सज्जन विषयों से दूर, शील युक्त , सद्गुणी हैं दूसरों के दुःख से दुखी , सुख से सुखी हो जातें हैं सब के मित्र हैं , कोई अमित्र नहीं संत अभिमान रहित , वैरागी , लोभ , क्रोध , भय रहित हैं कोमल चित्त , दिनों पर दया करने  वाले , मन , वचन तथा कर्म से ईश्वर भक्त होते हैं सब का सम्मान करते हैं परन्तु ख़ुद सम्मान नहीं चाहते कामना - रहित , शांत , विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं शीतल स्वभाव , सरल ब्यवहार , मैत्री पूर्ण आचरण , विद्वानों के प्रति आदर , धर्म युक्त हैं मन का निग्रह , इन्द्रियों का सयंम , नियम ( शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय , ईश्वर प्रणिधान ) और नीति से नहीं हटते कठोर वचन नहीं बोलते , उनको निंदा स्तुति बराबर ही है वे तो केवल ईश्वर से प्रेम करते हैं
अब असज्जन की बात सुनो -भूल कर भी इनका साथ मत करना जैसे हरहाई गाय (जिसके गले में लकड़ी बंधी रहती है ) तो ख़ुद चरती है ,  न दूसरे गाय को चरने देती है उसी तरह लोग  खुद को और अपने साथी को भी बर्बाद कर देते हैं और दुःख ही पहुंचाते हैं खल संतापी होते हैं दूसरे की सम्पत्ति देख कर जल जाते हैं दूसरों की निंदा सुनकर जैसे इन्हें मुफ्त में खजाना मिल गया हो काम क्रोध मद लोभ परायण तथा निर्दयता , कपट , कुटिलता और पापों के घर हैं चाहे आप उनका हित करें या अनहित दोनों स्थितियों में अकारण आप से वैर ही करेंगे झूंठ ही उनका नाश्ता , झूंठ ही भोजन और झूंठ ही उनका लेन-देन (दिन भर का व्यापार ) है मोर बोलता तो मीठा है लेकिन खाता सांप है वैसे ही इनकी बात मधुर , काम कसैला है इनका ध्यान सदा , पर धन , पर पत्नी , परद्रोह , पर निंदा में ही लगा रहता है वस्तुतः पामर (नीच ) पापमय नर शरीर धारी राक्षस ही हैं लोभ ही ओढ़ते बिछाते हैं आहार और मैथुन यही इनका जीवन है , तो यम् को भी नहीं डरते दूसरे की बड़ाई सुनकर इन्हें जूडी आने लगाती है , दूसरे की विपत्ति सुनकर मानो राज्य पा गए स्वार्थी , परिवार विरोधी ,लम्पट , कामी , क्रोधी , अति लोभी होतें है माता - पिता , गुरु विद्वान को नहीं मानते मोह वश द्रोह और साथी को भी उसी रास्ते पर लाकर नष्ट कर देते हैं इन्हें अच्छा साथ , सत्संग , हरि कथा नहीं भाती अवगुणों के सागर , मंदमति , कामी , वेदों का मजाक उडाने वाले , दूसरों के धन पर पलने वाले , दम्भी और कपटी लोग हैं परन्तु अपना वेश सुंदर बनाये फिरते हैं .
हे भरत सुनो , - सभी वेद पुराण का निर्णय यही है कि दूसरे की भलाई और मदद से अच्छा और कोई धर्म नहीं है , यही मैंने तुमसे कहा , यही विद्वान लोग भी जानते है मनुष्य का शरीर धारण कर जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाते हैं वही पापी और अधम हैं " (राम चरित मानस - उत्तर कांड - ३६ से ४१ दोहों के मध्य मूल पाठ के लिए देखें ) .