Saturday, July 13, 2013

WHEN KNOWLEDGE DAWNS

सीढ़ी पकड़ कर ही मत बैठ जाना .[ साधन को ही साध्य समझना बड़ी भूल है साधको की ]
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जिसे आप सीढ़ी [ साधन ] बनाते हैं और जिसके सहारे कहीं जाना , चढना या पहुंचना चाहते हैं , उस  सीढ़ी कों भी तो सहारा चाहिए , न ? वह किसके सहारे है ?; वह सीढ़ी भी उसी के सहारे होती है , जहाँ आप जाना चाहते हो -जैसे छत पर जाने के लिए सीढ़ी छत से लगानी होती है - इसी प्रकार ज्ञान के लिए गुरु की सीढ़ी हुई  - अब गुरु भी ज्ञान के सहारे ही है ; भगवान के लिए धर्म-गुरु - पर , धर्म -गुरु भी भगवान के सहारे ही होते है ...........कुछ लोग इन्ही सीढियों कों ही पकड़ कर बैठ जाते है और सो छत पर नहीं पहुँच पाते ...छत पर जाने कों सीढ़ी जरुरी है  , पर छत पर पहुँच के लिए सीढ़ी कों छोड़ना अनिवार्य ही है ........सो भगवान् कों पाने के लिए गुरु कों और ज्ञान कों पाने के लिए पुस्तक और अध्यापक कों छोड़ना होगा ......साधन कों साध्य समझने की भूल करने से ही अधिकतर लोग साध्य को नही प्राप्त कर  पाते ........सो देखना !!! कहीं सीढ़ी पर ही तो पकड़ नहीं बनाकर बैठ गए हो ?.........ट्रेन पर यात्रा के लिए बैठना जरुरी तो है पर अपने  स्टेशन पर ख्याल से उतर भी जाना है . ज्ञानोदय तभी जानना जब सारे साधन छूट  जायं .....'' when knowledge dawns all the Vedas , Puraans ,Books and Gurus vanish . - Upnishad )
 प्रार्थना के साथ .

Friday, July 12, 2013

VIEWS & VALUES IN LIFE

उपभोक्ता , उपभोग और पदार्थ मूल्य
1  - कुछ चीजों का मूल्य इस लिए बहुत अधिक है , उनकी उपलबध्ता कम है , जितनी  कम उपलब्धता उतना ज्यादा मूल्य , यथा सोना ,हीरा  , मोती , मानिक आदि आदि
2  - कुछ का मूल्य उपभोक्ता के उपभोग पर निर्भर है , यथा आभूषण  न पहनने पर सोना-हीरा रत्नों का मूल्य . सिनेमा न देखने पर हीरो हिरोइन का मूल्य , तम्बाकू शराब , नशे के पदार्थों के न सेवन पर उनसे बने पदार्थों का मूल्य ,  प्रसाधनो जैसे तेल साबुन , सीसा कंघी  , स्नो -पाउडर , इत्र  आदि का मूल्य ऐसे उपभोक्ता  के लिए शून्य हो गया.....इस तरह हम अनावश्यक पदार्थों का त्याग कर सरलता से उनका मूल्य ख़तम कर सकते हैं और त्याग - भोग का सुख - आनंद ले सकते हैं
3  - कुछ चीजो का मूल्य जीवन की अनिवार्य आवश्कताओं की वजह से है , जैसे - हवा  , पानी , भोजन और छाया /छत [ परन्तु प्रकृति -बुद्धि ने इसे जो जितना अनिवार्य है उसे उतना अधिक देकर हमें उपकृत किया है , नाक के पास हवा , थोड़ी दूर या गहराई पर पानी और थोड़े परिश्रम से भोजन और निवास ] पर हम इनका मूर्खता पूर्ण दुरुपयोग कर रहे हैं जो कभी हमारे अस्तित्व के लिए ख़तरा हो सकता है , हमे , इन्हें बचाना चाहिए .
अब उपभोग संस्कृति पर दो मत हैं
एक  - अधिकाधिक भोग ...जितना अधिक भोग मिलें उतना भोग कर सुख पाना , चार्वाक दर्शन (ऋण ले कर भी घी पीना ) , भोग वादी संस्कृति
दूसरा  - जितना जीवन के लिए आवश्यक हो , कम से कम भोग करना , इसी में सुख है , वेदांत का संन्यास , जैन , तुलसी और गांधी का अपरिग्रह ( जरूरत से ज्यादा को छोड़ देना , वापस समाज , प्रकृति को देना या लेना ही नहीं ) प्रोफेसर जे के मेहता (इलाहबाद वि वि  ) की थियरी ..... '' थ्योरी ऑफ़ वांटलेसनेस ''
हमारा  चुनाव आज कल '' अतिअधिक भोग्वादी '' ही है .....