Friday, February 28, 2014

गीता में सत् और असत = आत्मा का स्वरूप [अध्याय दो ]

परम तत्व दर्शी कहते हैं , - असत के होने का सवाल ही नहीं है और सत् कभी भी नष्ट नही हो सकता । २/१६इस प्रकार यह आत्मा जो हमारे शरीर में ब्याप्त है अविनाशी और अब्यय है । २/१७ यह हमारा भौतिक शरीर जिसमें अविनाशी अप्रमेय तथा शाश्वत आत्मा का निवास है ,परिवर्तित होता रहता है । २/१८ आत्मा नतो जन्मती है , न मरती है ; न तो यह थी , न होगी , यह तो सदा सर्वदा है ; यह अति प्राचीन ,नित्य , शाश्वत और अजन्मा है ; न यह मरती है , न मारती है । २/२० यह आत्मा पुराने शरीर को जीर्ण हो जाने पर उसे बदल कर नया धारण कर लेती है । २/२२ यह आत्मा विभाजित नहीं हो सकती , आग से जलती नही , न पानी इसे गीला कर सके न हवा सुखा सके । २/२३ यह आत्मा अखंडनीय , अघुलनशील , न सुखायी जा सकने वाली , शाश्वत , सर्वब्यापी, अविकारी , स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाली है । २/२४ यह आत्मा अदृश्य , अकल्पनीय और अपरिवर्तित है । २ /२५ सारे जीव प्रारम्भ में अब्यक्त बीच में ब्यक्त और अंत में पुनः अब्यक्त हो जाते हैं , यही जन्म -मृत्यु है । २/२८

Monday, February 24, 2014

स्थिति प्रज्ञ के लक्षण , भगवद् गीता अध्याय दो


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अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह  कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?॥54॥
 भगवान् कृष्ण ने कहा - जो  मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब  वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥55॥
दुःखों की प्राप्ति होने पर  मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि  है॥56॥
जो  सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न  है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है॥57॥
कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥58॥
 इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले  भी केवल विषय से तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। यह निवृत्ति होती है परन्तु आत्म -लाभ से ॥59॥
 ये प्रमत्त  स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात्‌ हर लेती हैं॥60॥
सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥
विषयों का चिन्तन करने से  उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि  का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष का विनाश हो जाता है ॥ 62  , 63॥
अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता /प्रसाद  को प्राप्त होता है ,  अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है॥ 64 , 65॥
जैसे  जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥67॥
 जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है॥68॥ .
सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है॥69॥
जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं॥70॥
जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है ॥71॥
यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है॥72॥

भगवद् गीता ले अध्याय तीन में कर्म की अवधारण


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अकर्ता (कर्म के अनारंभ से ) को मोक्ष नही हो सकता , न तो सन्यास से सिद्धि मिल सकती है । 3 / 4  .
मनुष्य अपने प्रकृति (स्वभाव , धर्म ) वश ही कर्म करने को वाध्य है । कोई भी विना कर्म किए एक क्षण भी नहीं रह सकता । 3 / 5 .
नियत कर्म करो , क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ट है ॥ विना कर्म के तो शरीर यात्रा भी संभव नहीं है ।3 / 8 .
जो आत्म तृप्ति , आत्म संतोष ,आत्म साक्षात्कार और आत्म रति से युक्त हो गया हो , उसके लिए कुछ करने को नहीं है । 3 / 17 .।
जनक जैसे अन्यलोगों ने भी कर्म से सिद्धि प्राप्त की । लोक संग्रह के विचार से भी कर्म करो । 3 / 20  ।
श्रेष्ट जैसा आचरण  करते हैं ;सामान्य जन और लोक भी उसीका अनुसरण करता है । 3 / 21 . ।
ज्ञानी भी प्रकृति वश तदवत कर्म करता है , भला कर्म निग्रह से क्या लाभ ? 3 / 33 . ।
अपने ( स्वधर्म) नियत कर्म , भले वह दोषपूर्ण हो ; अच्छे से किए गए दूसरे के काम से श्रेष्ट है । अपने कर्म को करते हुए मृत्यु प्राप्त करना श्रेयष्कर है ; अन्यथा कोई कर्म भयावह है । 3 / 35 .।
देखो अर्जुन ! मेरे लिए तो कुछ भी करना शेष नही तो भी सदा कर्म रत रहता हूँ । 3 / 22 ।

भगवद् गीता अध्याय 4 के प्रमुख विचार


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समाज ब्यवस्था में जब प्रकृति के नियमों के पालन में कुछ लोगों द्वारा कदाचरण अथवा अनैतिक आचरण होने लगता है तो मानव -धर्म में गिरावट आ जाती है , ऐसे समय पर विश्व आत्मा एक समूह में तथा स्वयं नायक (अवतार ) के रूप में ,अपना सृजन कर संतों की मदद करने तथा दुष्टों को नष्ट करने पृथ्वी पर आती है । 4 / 7 , 8
जिस भाव से मुझे लोग चाहते हैं ,उसी रूप में मै उन्हें फल देता हूँ , कोई किधर से भी चले , मेरे पास ही आता है । जो सकाम कर्म करते है और भिन्न भिन्न देवताओं को पूजते है , उन्हें उनके कर्म के अनुसार सिद्धि मिल जाती है । 4/ 11, 12 .
क्या करना और क्या नही करना ; ऐसे में बुद्धिमान भी धोखा खा जाते है , क्यों कि ऐसा निर्णय करना कठिन है । जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है , वह सभी मनुष्यों में बुद्धिमान है । जो इन्द्रिय तृप्ति की भावना से रहित हो कर कर्म करता है वह बुद्धिमान है । जो कर्म में आसक्त हुए बिना काम करे , वह कुछ नही करता । जो सयंमित मन तथा बुद्धि से निराशी होकर स्वामित्व की भावना त्याग ,शरीर निर्वाह के लिए कर्म करता है , वह श्रेष्ट है । जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट है , द्वंद से मुक्त है , इर्ष्या नही करता , सफल असफल होने पर एकसा रहता है , वह कर्म करते हुए भी कर्म -फलों तथा बन्धनों से मुक्त है । 4 / 16 , 18 , 19 , 20 , 21 , 22 .

भगवद् गीता अध्याय 5 और 6 के विचार


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ज्ञानी मनुष्य , विनम्र साधु पुरूष विद्वान , गाय , हाथी , कुत्ता और कुत्ते को खाने वाले ; सभी में उसी एक परम तत्व , आत्मा को ही देखते है । जो प्रिय को पाकर हर्षित और अप्रिय को पाकर विचलित न हो , जो स्थिर बुद्धि , मोह रहित है, वह आत्मा को जनता है । 5 / 18, 20 .
अर्जित ज्ञान और अनुभव से ,आत्मा में स्थित ,जितेन्द्रिय , मिटटी और सोने को बराबर देखने वाला योगी है । जो मनुष्य निष्कपट होकर , हितैषी , प्रिय , मित्र , अमित्र , तटस्थ , मध्यस्थ , इर्ष्या करने वालों पुण्यात्माओं और पापियों को समान भाव से देखता है वह सब में उन्नत माना जाता है । 6 / 8 , 9 .
वास्तविक योगी सभी जीवों में मुझको तथा मुझमें समस्त जीवों को देखता है , और पुनः मुझे सर्वत्र देखता है , उसके लिए मै और मेरे लिए वह कभी अदृश्य नही हैं । 6 / 29 , 30 .

भगवद् गीता से --- 7 , 8 और 9 वें अध्याय के प्रमुख विचार


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हजारों मनुष्यों में से कोई एक जिज्ञासु होता है, सिद्धि के लिए और फ़िर उनमे से विरला ही सत्य को जान पाता है । मै (आत्मा) ही रस , जल , सूर्य , चंद्र , ओमकार , ध्वनि तथा मनुष्यों की सामर्थ्य हूँ । पृथ्वी में गंध , अग्नि में ऊष्मा , सभी जीवों में जीवन , तपस्वी में तप और सभी जीवों का आदि बीज हूँ । मै ही बलवान का बल और कामियों में धर्मयुक्त काम हूँ। 7 / 3 , 8 , 9 , 10 , 11।
मुझे मूर्ख  , अधम , नास्तिक और मोही नहीं जानते । मुझे आर्त ,जिज्ञासु , अर्थार्थी तथा ज्ञानी ही जानते हैं । जो भी जिन देवताओं को पूजते है  , उन्हीं देवताओं में स्थिर होकर मै उन्हें फल देता हूँ । 7 / 15 , 16 , 20 , 21।
जो ओमकार का जप करते है , जो वीतराग हैं , वे इन्द्रियों को वश में करके योग का अभ्यास करते है और प्राण वायु को सर के मध्य में केंद्रित कर समाधि को प्राप्त करते हैं । 8 / 11 , 12 ।
मै (आत्मा) ही वैदिक कर्म , यज्ञं , पितरों का तर्पण , औषधि , मन्त्र , घृत , अग्नि और आहुति हूँ । मै इस श्रृष्टि का माता पिता तथा पितामह हूँ , मै सभी वेद , ज्ञान , जानने योग्य और ज्ञाता हूँ । मै ही लक्ष्य , प्रभु , साक्षी , निवास , शरण , सुहृत ,प्रभाव , प्रलय , स्थान , निधान , इन सब का अविनाशी बीज हूँ । तप , वर्षा , जन्म , मृत्यु और सत असत भी मै ही हूँ । न किसी से द्वेष न राग , न प्रेम न घृणा ; मै सबको समान मानता हूँ ,परन्तु जो मेरी भक्ति में है , वह मुझे ज्यादा प्रिय है । कोई पापी भी मेरी शरण में आकार सुधर जाता है । मेरे भक्त का कभी विनाश नही होता । जन्म से कोई कुछ भी हो , नारी नर , उंच , नीच , पापी सभी मेरे भक्त होने के पूर्ण पात्र हैं । सो मुझे ही सोचो , मेरी शरण में आओ , मुझे ही प्रणाम करो , मेरेमय हो जाओ । 9 / 16, 17, 18 , 19 , 22 , 23 , 27 . 29 , 30 , 31 , 32 , 33 , 34 , ।

Sunday, February 23, 2014

भगवद गीता से -- अध्याय 12 और 13 के मुख्य विचार


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श्री भगवान कहते है , -जो लोग अपने मन को मेरे साकार रूप में एकाग्र करते है वे परम सिद्ध हो सकते हैं ।
लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में करके ,समभाव रख कर उस परम सत्य की निराकार रूप में साधना करते है , जो सर्व ब्यापी , अकल्पनीय , अनुभव से परे , अपरिवर्तनीय , अचल तथा ध्रुब है , वे भी मुझे प्राप्त करते हैं ।
मेरे में अपने चित्त को लगाओ , यदि ऐसा नहीं कर सकते तो मुझे प्राप्त करने की चाह पैदा करो ।
यदि ऐसा भी नही कर सकते तो मेरे लिए सभी कर्म करके भी सिद्धि प्राप्त कर सकते हो । 12/ 2, 3 , 4, 8 , 9 , 10 , 11 , 12
अब सुनो ज्ञान और ज्ञानी के विषय में - विनम्रता , दम्भ हीनता , अहिंसा , सहिष्णुता , सरलता , योग्य गुरु का सानिध्य , पवित्रता , स्थिरता , इन्द्रिय तृप्ति हेतु विषय भोग का त्याग , अहंकार का त्याग , जन्म मृत्यु जरा रोग की अनुभूति , वैराग्य , सुत , वित् , नारि ईषना का त्याग , अच्छे , बुरे के प्रति समभाव , अकेले रहने की इच्छा , जन समूह से विलगाव , आत्म साक्षात्कार की आकांक्षा , परम सत्य की दार्शनिक खोज की जिज्ञासा और मेरे प्रति अनन्य , निरंतर भक्ति , यही ज्ञान है , शेष अज्ञान है । 13 / 8 , 9 , 10
परमात्मा सभी में ब्यप्त होकर अवस्थित है । परम सत्य जड़ जीवों में बाहर भीतर स्थित है । यह सभी में विभाजित तो लगता है पर है नही । वह अविभाजित एक रूप में सब जड़ ,जीवों में स्तिथ है ।
वही देखता है जो परमात्मा को सब में और सब में उस परमात्मा को देखता है । 13/ 14 , 16 , 17 , 28.

भगवद् गीता से {13 , 14 अध्याय }



त्रिगुणात्मक प्रकृति
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प्रकृति का परिवार (सांख्य दर्शन ) इस प्रकार है - पञ्च महाभूत - पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु तथा आकाश , फ़िर अब्यक्त तिन गुण , मन बुद्धि अंहकार ;पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ , पञ्च कर्मेन्द्रियाँ , पञ्च विषय -गंध , स्वाद , रूप , स्पर्श तथा ध्वनि सभी 24 हैं । 13/ 7
भौतिक प्रकृति तीन गुणों से युक्त है , सत , रज तथा तम ।
सत हल्का , प्रकाश कारी , सुख तथा ज्ञान का भाव रखता है ।
रज गत्यात्मक है
और तम प्रमाद , निद्रा और आलस्य से युक्त है ।
सत से सुख , रज से कर्म और तम से अज्ञान पैदा होता है।
इन तीनों में कभी सत तो कभी रज और कभी तम एक दूसरे को परास्त करके प्रधान हो जाते हैं । इस प्रकार श्रेष्ठता के लिए निरंतर स्पर्धा होती रहती है .
सत से ज्ञान , रज से लोभ और तम से अज्ञान , प्रमाद और मोह पैदा होता है ।
सतोगुणी उर्ध्वगामी , रजोगुणी मध्यगामी और तमोगुणी अधोगामी स्वभाव के होते हैं ।
जो मनुष्य इन तीनों गुणों को पार कर जाता है , वही जीवन में आनंद भोग करता है ।
जो यह जन लेता है कि यही तीनों गुण कर्म कराते हैं वह त्रीगुनातीत कहा जाता है । वही स्थिरप्रज्ञ ऐसा माना जाता है । वही अपने वास्तविक स्वरुप को जान पता है । ''
- गीता 14/ 5,6,7,8,9,10,17,20,21,22,23,24,25

भगवद् गीता के 16 वें अध्याय में कहे भगवान् कृष्ण के प्रमुख विचार


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निर्भयता , अध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन , दान , आत्मसंयम , यज्ञ परायणता , वेदाध्ययन , तपस्या , सरलता , सत्य , अहिंसा , अक्रोध , त्याग , शान्ति , छिद्रान्वेषण ( निन्दा ) में अरुचि , करुणा , लोभहीनाता , भद्रता , लज्जा , संकल्प , तेज , क्षमा , धैर्य , पवित्रता , इर्ष्या तथा सम्मान से मुक्ति , ऐ सारे दिव्य गुण हैं । 16 / 1 , 2 और 3 ।
दर्प , दंभ , अभिमान , क्रोध , कठोरता तथा अज्ञान ऐ आसुरी स्वभाव हैं । इन्द्रियों की तुष्टि ही इनकी मूल मांग है .ऐसे लोग जीवन भर काम, क्रोध और लोभ में रत रहकर अपार चिंता से जन्म से से मरण काल तक धन संचय / संग्रह में लगे रहते हैं । आज इतना है कल तक इतना और कमा लूँगा , वह मेरा शत्रु है , मैंने उसे मार दिया है , और अन्य शत्रुओं कोभी मार दूंगा , मै इन सब बस्तुओं का स्वामी हूँ , मै ही भोक्ता हूँ , मै सबसे शक्तिमान , सुखी और धनी हूँ , मेरे पास कुलीन सम्बन्धी हैं , मै यज्ञ करूँगा , दान दूंगा , आनंद मनाऊँगा । ऐसा सोचने वाले मोहग्रस्त और अज्ञानी हैं ॥ कभी कभी नामके लिए यज्ञ करते हैं , दान देते हैं , भगवान् से इर्ष्या और वास्तविक धर्म की निंदा तथा अवहेलना करते है । काम क्रोध और लोभ इनके महामार्ग हैं । इस प्रकार जो शास्त्रों और धर्म की अवहेलना करता है , न तो सिद्धि , न सुख और न तो परम गति को प्राप्त कर पाता है ।16/ 4 , 11 , 12 , 13 , 14 , 15 , 17, 18 , 21 और 23 ।

भगवद गीता के १८ वें अध्याय में भगवान् कृष्ण द्वारा कहे गये प्रमुख वचन



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सतोगुणी - बुद्धि जानता है - क्या करना और क्या नहीं करना , किससे डरना किससे नहीं डरना , क्या बंधन है और क्या मोक्ष है ।
जो बुद्धि धर्म अधर्म , करणीय अकरणीय और सत असत में भेद नहीं कर पाती है , वह राजसी है ।
जो अधर्म को धर्म और असत को सत तथा अकरणीय को करणीय जानता है वह तामसी है । १८/ ३०,३१ ,३२ ।
जो पहले विष जैसा और अंत में अमृत जैसा है , वही श्रेय है , सात्विक सुख है ।
जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से , प्रारम्भ में अमृत सा अंत में विष सा लगता है , वह राजसी सुख है ।
जो सुख आत्मसाक्षात्कार के प्रति अंधा है , मोह , निद्रा , आलस्य , प्रमाद से ही शुरू होकर दुःख में ही अंत करता है वह तामसी सुख कहलाता है । १८/ ३७, ३८ , ३९ ।
जो अपने नियत कर्म को करता है वह सिद्ध हो सकता है ।
सभी कर्मों में कोई न कोई दोष होता ही है , अतः अपने अपने नियत कर्म को करना ही सर्वोत्तम है । १८/४५, ४८ ।
समस्त प्रकार के धर्मों की चिंता छोड़ मेरे ही शरण में आ जाओ , मै तुम्हे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा , चिंता मत करो । सारे कार्य के लिए मुझ पर निर्भर रहो , मेरे संरक्षण में सदा कर्म करते रहो और मेरी भक्ति में ही सदा सचेत रहो ।
मै तुम्हारे योग (साधना का शुभारम्भ ) और क्षेम (साधना की सुरक्षा और कल्याण /साध्य की प्राप्ति ) का वहन करूंगा । १८/५७, ६६।
सो सदैव मेरा चिंतन करो , मेरे भक्त बनो , मुझे नमस्कार करो , अपने नियत कर्म करते हुए निश्चिंत हो जाओ , मै तुम्हे वचन देता हूँ ।

चरैवेति , चरैवेति


चरैवेति , चरैवेति ( चलते रहो , चलते रहो ।) जीवन में इस सूत्र का अनुपालन बहुत महत्व का है । कहावत है , जहाज अगर किनारे ही खड़ा रहे तो सुरक्षित ही है परन्तु उसे तो सागर में दूसरे किनारे तक जाना ही है और यही उसका मनतब्य है । लोग डूबते रहे हैं , परन्तु तैरने का मनसूबा कम नहीं होता , और नाव और जहाज और तैरने वाले सागर में , नदी में उतरते ही रहे हैं । मंजिल सबको नहीं मिली तो क्या रास्ते तो चलते ही रहे और राही भी बढ़ते ही गए , नए रास्ते खोजे जाते रहे । परीक्षाओं में लोग फेल होते रहे तो क्या परीक्षा में बैठना तो बंद नहीं हुआ । हारने पर , जीतने का हौसला बढ़ता ही गया ।
कहां हादसे नहीं हुए , रेल में , सड़क पर , वायुयान में पर हमारी यात्रा चाँद तक पहुंच चुकी है , आगे का इरादा है । मौत के सागर में जिंदगी तैरती रही है और आगे न डूबने का पक्का इरादा है ।
सागर ( दुनिया ) मौत और जिंदगी का अजीब खेल है । न डूबने का इरादा , तैरने वाले का है और तैरने वाले का डूबना पक्का ही समझो । जो पानी में नही उतरता वो डूब भी नही सकता । नाव तो जल में ही चलेगी । जो भी जीवन पा चुका, इस संसार में वह उतर ही गया, पानी में और अब तो तैरना भी है और डूबना भी , तैर कर । इसी से हमारे यहाँ इस दुनिया को भवसागर कहा गया है । चलना ही मंजिल है , जब तक जीवन है , चलना होगा । हम यात्री हैं और यात्रा ही हमारा परम ध्येय है , चलना ही श्रेय है , सो कहा है , -- चलते रहो , चलते रहो । इसी इरादे को जीने की तमन्ना कहते है , इसके लिए हमें डूब कर तैरना सीखना है और तैर कर डूबना । इसी विरोधाभासी यात्रा को जीवन / जिंदगी कहा है । लाइफ इज लाइक दैट ।सो , धैर्य से , समझ से , हिम्मत से , हौसले से , चलते रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है । चरैवेति , चरैवेति ।