Thursday, August 23, 2012

AWARENESS OF THE SELF

जब मैं बीएचयू  से बी एड  कर रहा था तो मेरी दोस्ती  बीएचयू के  दो प्राध्यापकों से हुई , जो कैम्पस में निवास न पाने के कारण मेरे साथ अस्थायी रूप से किंग एडवर्ड होस्टल में ही रहते थे , एक गणित के थे और दूसरे अंग्रेजी के , दोनों ही अपने बैच के टापर  थे , तो वे दोनों शाम को थोड़ा पीते थे , एक दिन चर्चा में उन दोनों ने मुझे सलाह  करी कि मुझे भी पीना चाहिए तो मैंने उन्हें उमर  खैयाम की एक *रूबाई सुनाई जिसे मैंने 1964 में पढ़ा और समझा था , उसकी ब्याख्या भी मैंने की और वे दोनों इतने प्रभावित हुए कि दुसरे दिन से पीने को अलविदा कर दिया , मैंने जो कहा था , वह यह था ------- जो नशे में होते हैं वे पीते हैं , क्षमा करिएगा , मैं तो होश में रहता हूँ , बस्तुतः आज के लोग जिसमे आप लोग भी दुर्भाग्य से शामिल है अधिकतर हमेशा नशे में ही रहते हैं यानि कि बेहोश ,लोगों का जीवन इतना जटिल हो गया है कि उन्हें अपने स्व /सेल्फ का ज्ञान  ही नहीं रह गया है , वे भूल गये हैं कि , वे है क्या और कौन ? इसलिए वे कोई न कोई नशा करते हैं और तब उस नशे में उनको होश आता है कि वे कौन हैं .स्व का ज्ञान होता है , इसी लिए , अपराधी या सड़क का मजनू जब पी लेता है तो उसका स्वाभिमान कहता है - कौन पुलिस ? कौन एस पी ? मेरे आगे कोई नहीं , मैं हूँ , मैं ! और इसिलए आज के फददू कवि पीकर कविताएँ लिखते / करते हैं .....असलियत में लोग नशे के लिए नहीं होश के लिए पीते हैं , बेहोश तो वे पहले से हैं ........इसलिए जो होश में हैं वे क्यों पियेंगे , भला ? ''
अब उमर ने जो लिखा उसकी ब्याख्या देखिये ---'' हाँ  ! कल मैंने  न पीने की कसम खाई थी , हाँ खाई तो थी  , न पीने की कसम , परन्तु जब ये कसम खायी थी ,उस समय मैं होश में कहाँ था , होश में तो अब आया हूँ , ( जब पीने के इरादे में हूँ .............सारे ब्यसनी जो किसी न किसी नशे में हैं वे सब बस्तुतः बेहोशी की हालत में हैं , वो चाहे शराब का नशा हो सिगरेट का , सिनेमा का , या धन , काम , मोह-लोभ का , दुश्मनी का, घृणा का , क्रोध का या या लम्पटता का सब नशे में हैं ,बेहोश हैं , किसी को स्व का ज्ञान नहीं , इसीसे इतना दुःख ,असंतोष , भ्रष्टाचार ,हिंसा , धार्मिक ढोंग और चीत्कार ब्याप्त है ....स्व का जिसे ज्ञान है वही इन सब से मुक्त है और आनन्द मैं है .
* Indeed, indeed, Repentance oft before
 I swore but was I sober when I swore?
 And then and then came Spring, and Rose-in-hand
 My thread-bare Penitence apieces tore.
 >>> Rubaiyat of Omar Khayyam by Edward FitzGerald